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सबरीमाला मंदिर में महिलाओं को मिली एंट्री,सर्वोच्च न्यायालय ने प्रवेश पर लगी रोक हटाई

सर्वोच्च अदालत ने शुक्रवार को एक ऐतिहासिक फैसले में केरल के सबरीमाला मंदिर में महिलाओं के प्रवेश को मंजूरी दे दी है। अदालत ने कहा कि महिलाओं का मंदिर में प्रवेश न मिलना उनके मौलिक और संवैधानिक अधिकारों का उल्लंघन है।अदालत ने अपने फैसले में 10 से 50 वर्ष के हर आयुवर्ग की महिलाओं को मंदिर में प्रवेश को लेकर हरी झंडी दिखा दी है।

पांच न्यायाधीशों की खंडपीठ में एकमात्र महिला न्यायाधीश इंदु मल्होत्रा ने अलग फैसला दिया। मुख्य न्यायधीश दीपक मिश्रा ने जस्टिस एम.एम. खानविलकर की ओर से फैसला पढ़ते हुए कहा, “शारीरिक संरचना के आधार पर महिलाओं के अधिकारों का हनन नहीं किया जा सकता। मिश्रा ने कहा, “सभी भक्त बराबर हैं और लिंग के आधार पर कोई भेदभाव नहीं हो सकता।”

सबरीमाला मंदिर

इस मंदिर में हर साल नवम्बर से जनवरी तक, श्रद्धालु अयप्पा भगवान के दर्शन के लिए भक्त उमड़ पड़ते हैं। क्योंकि बाकि पूरे साल यह मंदिर आम भक्तों के लिए बंद रहता है। भगवान अयप्पा के भक्तों के लिए मकर संक्रांति का दिन बहुत खास माना जाता है, इसीलिए उस दिन यहां सबसे ज़्यादा भक्त पहुंचते हैं।

वहीं, आपको जानकर हैरानी होगी कि इस मंदिर में महिलाओं का जाना वर्जित है। खासकर 15 साल से ऊपर की लड़कियां और महिलाएं इस मंदिर में नहीं जा सकतीं। यहां सिर्फ छोटी बच्चियां और बूढ़ी महिलाएं ही प्रवेश कर सकती हैं। इसके पीछे मान्यता है कि भगवान अयप्पा ब्रह्मचारी थे।

कौन थे अयप्पा?

पौराणिक कथाओं के अनुसार अयप्पा को भगवान शिव और मोहिनी (विष्णु जी का एक रूप) का पुत्र माना जाता है। इनका एक नाम हरिहरपुत्र भी है। हरि यानी विष्णु और हर यानी शिव, इन्हीं दोनों भगवानों के नाम पर हरिहरपुत्र नाम पड़ा। इनके अलावा भगवान अयप्पा को अयप्पन, शास्ता, मणिकांता नाम से भी जाना जाता है। इनके दक्षिण भारत में कई मंदिर हैं उन्हीं में से एक प्रमुख मंदिर है सबरीमाला।इसे दक्षिण का तीर्थस्थल भी कहा जाता है।

मंदिर की खास बात

यह मंदिर केरल की राजधानी तिरुवनंतपुरम से 175 किलोमीटर दूर पहाड़ियों पर स्थित है। यह मंदिर चारों तरफ से पहाड़ियों से घिरा हुआ है। इस मंदिर तक पहुंचने के लिए 18 पावन सीढ़ियों को पार करना पड़ता है, जिनके अलग-अलग अर्थ भी बताए गए हैं। पहली पांच सीढियों को मनुष्य की पांच इन्द्रियों से जोड़ा जाता है। इसके बाद वाली 8 सीढ़ियों को मानवीय भावनाओं से जोड़ा जाता है। अगली तीन सीढियों को मानवीय गुण और आखिर दो सीढ़ियों को ज्ञान और अज्ञान का प्रतीक माना जाता है। इसके अलावा यहां आने वाले श्रद्धालु सिर पर पोटली रखकर पहुंचते हैं। वह पोटली नैवेद्य (भगवान को चढ़ाई जानी वाली चीज़ें, जिन्हें प्रसाद के तौर पर पुजारी घर ले जाने को देते हैं) से भरी होती है। यहां मान्यता है कि तुलसी या रुद्राक्ष की माला पहनकर, व्रत रखकर और सिर पर नैवेद्य रखकर जो भी व्यक्ति आता है उसकी सारी मनोकामनाएं पूरी होती हैं।

अयोध्या:सुप्रीम कोर्ट ने कहा मस्जिद इस्लाम का अभिन्न हिस्सा नहीं है,पढ़ी जा सकती है कहीं भी नमाज़

मस्जिद पर दिए गए सुप्रीम कोर्ट के फैसले को राम-मंदिर विवाद में बहुत महत्वपूर्ण माना जाता है।

राम जन्मभूमि-बाबरी मस्जिद विवाद के एक मामले में मस्जिद के अंदर नमाज पढ़ने को लेकर सुप्रीम कोर्ट ने फैसला सुना दिया है। जस्टिस अशोक भूषण और चीफ जस्टिस दीपक मिश्रा ने इस मामले को संविधान पीठ में भेजने से इनकार कर दिया है। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि साल 1994 के एक फैसले पर पुनर्विचार की जरूरत नहीं है। दरअसल, कोर्ट ने 1994 के अपने फैसले में कहा था कि मस्जिद इस्लाम का अभिन्न हिस्सा नहीं है।

सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले पर पुनर्विचार करने के लिए मुस्लिम पक्षकारों की ओर से याचिका दाखिल की गई थी, जिस पर चीफ जस्टिस दीपक मिश्रा की अगुवाई वाली बेंच ने 20 जुलाई को फैसला सुरक्षित रखा था।

क्या था मामला

अयोध्या में कार सेवकों ने 6 दिसंबर, 1992 में बाबरी मस्जिद को गिरा दिया था। इसके बाद केंद्र सरकार ने 7 जनवरी, 1993 को अध्यादेश लाकर अयोध्या में 67 एकड़ जमीन का अधिग्रहण कर लिया था। इसके तहत विवादित जमीन का 120×80 फिट हिस्सा भी अधिग्रहित कर लिया गया था जिसे बाबरी मस्जिद-राम जन्मभूमि परिसर कहा जाता है। केंद्र सरकार के इसी फैसले को इस्माइल फारूकी ने सुप्रीम कोर्ट में चुनौती देते हुए अपनी याचिका में कहा था कि धार्मिक स्थल का सरकार कैसे अधिग्रहण कर सकती है। इस पर सुनवाई करते हुए शीर्ष अदालत ने कहा था कि मस्जिद में नमाज पढ़ना इस्लाम का अनिवार्य हिस्सा नहीं है।

सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले पर मुस्लिम समुदाय सहमत नहीं है। वे चाहते हैं कि सुप्रीम कोर्ट अपने फैसले पर दोबारा विचार करे। मुस्लिम समुदाय यह भी चाहता है कि अयोध्या में विवादित जमीन के मालिकाना हक से जुड़े केस में फैसले से पहले 1994 के इस्माइल फारूकी मामले पर आए फैसले पर नए सिरे से विचार हो। बता दें कि इस साल 7 जुलाई को चीफ जस्टिस की अध्यक्षता वाली तीन जजों की बेंच अयोध्या में विवादित जमीन के मालिकाना हक से जुड़े मामले की जब सुनवाई कर रही थी तो मुस्लिम पक्ष के वकील राजीव धवन ने मस्जिद में नमाज पढ़ना इस्लाम का अनिवार्य हिस्सा है या नहीं है, इस मामले को संविधान पीठ के पास भेजने की मांग की थी। उनकी दलील थी मुस्लिम समुदाय की दलीलों को ध्यान से सुना और परखा जाए।

सुनवाई के दौरान राजीव धवन ने कहा था कि इस्लाम सामूहिकता का मजहब है। वैसे तो नमाज कहीं भी पढ़ी जा सकती है, लेकिन जब शुक्रवार को सामूहिक नमाज होती है तो मस्जिद में उसे पढ़ा जाता है। उन्होंने कहा कि पूरी दुनिया में इस्लाम की शुरुआत से ही यह परंपरा है। मुस्लिम पक्षकार मोहम्मद खालिद कहते हैं कि इस संबंध में हमने कुरान की 24 आयतें सुप्रीम कोर्ट को सौंपी हैं, जिनसे यह साबित होता है कि मस्जिद में नमाज पढ़ना इस्लाम का मुख्य अंग है। वहीं, हिंदू पक्षकारों का कहना है कि यदि इस मामले की सुनवाई दोबारा शुरू होती है तो इसका असर टाइटिल सूट से जुड़े मुख्य मामले की सुनवाई पर पड़ सकता है। बता दें कि सुप्रीम कोर्ट यदि इस मामले को संविधान की बड़ी बेंच के पास भेज देता है तो मुख्य मामले की सुनवाई लंबे समय तक अटक सकती है।

एडल्ट्री कानून अपराध के दायरे से बाहर,पुरुष नहीं कर सकता महिला को प्रॉपर्टी की तरह इस्तेमाल

सुप्रीम कोर्ट के जजों ने एडल्ट्री कानून को अपराध के दायरे से बाहर कर दिया है। खानविलकर ने कहा बराबरी जरूरी है। स्त्री और पुरुष के बीच में कोई भेदभाव नहीं किया जा सकता है। महिलाओं को पुरुषों की प्रॉपर्टी की तरह नहीं इस्तेमाल किया जा सकता। सुप्रीम कोर्ट ने ये भी कहा कि ऐसा कोई सोशल लाइसेंस नहीं है जिसके जरिए मैरेज इंस्टीट्यूशंस को बर्बाद करे। दूसरी तरफ इस मामले में सरकार का पक्ष अलग था। सरकार का कहना था कि अगर महिलाओं को भी एडल्ट्री के दायरे में रखते हैं तो मैरेज इंस्टीट्यूशंस बर्बाद हो सकता है। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि सेक्शन 497 आरबिटररी है। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि एडल्ट्री अपराध नहीं है। यह तलाक का आधार हो सकता है। अदालत ने सेक्शन 497 को असंवैधानिक घोषित कर दिया है।

150 साल पुराने एडल्ट्री कानून पर सुप्रीम कोर्ट गुरूवार को अपना फैसला सुनाया है। इस मामले पर सुप्रीम कोर्ट की पांच जजों वाली संवैधानिक पीठ ने एडल्ट्री को परिभाषित करने वाली आईपीसी की धारा 497 की वैधता खारिज करने को लेकर दायर की गई याचिका पर 23 अप्रैल 2018 को मामले की सुनवाई होने के बाद फैसला सुरक्षित रख लिया था। इस मामले में केंद्र सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में इस बात को माना था कि एडल्ट्री एक अपराध है और इसकी वजह से परिवार और विवाह दोनों ही बर्बाद हो रहे हैं। आईपीसी की धारा-497 (एडल्ट्री) के प्रावधान के तहत अभी तक सिर्फ पुरुषों को ही अपराधी माना जाता है जबकि इसमें महिलाओं को पीड़ित माना जाता था।

एडल्ट्री कानून के तहत किसी विवाहित महिला से उसके पति की मर्जी के बिना संबंध बनाने वाले पुरुष को पांच साल की सजा हो सकती है। दरअसल, एडल्ट्री यानी व्यभिचार की परिभाषा तय करने वाली आईपीसी की धारा 497 में सिर्फ पुरुषों के लिए सजा का प्रावधान है। महिलाओं पर कोई कार्रवाई नहीं होती है। इसके चलते इस एडल्ट्री लॉ को खत्म किए जाने के लिए ही सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर की गई है। एडल्ट्री कानून को खत्म किए जाने की याचिका पर सुनवाई के दौरान केंद्र की तरफ से सुप्रीम कोर्ट में इस कानून के बने रहने के पक्ष में दलील दी गई थी। इस पर केंद्र ने सुप्रीम कोर्ट की संवैधानिक पीठ के सामने कहा था कि व्याभिचार अपराध है क्योंकि इससे शादी और घर दोनों ही बर्बाद होते हैं।

क्या था मामला

केरल के जोसफ शाइन की तरफ से दाखिल याचिका में कहा गया है कि 150 साल पुराना यह कानून मौजूदा दौर में बेमतलब है। ये उस समय का कानून है जब महिलाओं की स्थिति बहुत कमजोर थी। इसलिए, व्यभिचार यानी एडल्ट्री के मामलों में उन्हें पीड़ित का दर्जा दे दिया गया। याचिकाकर्ता की दलील थी कि आज औरतें पहले से मजबूत हैं। अगर वो अपनी इच्छा से दूसरे पुरुष से संबंध बनाती हैं, तो मुकदमा सिर्फ उन पुरुषों पर ही नहीं चलना चाहिए। औरत को किसी भी कार्रवाई से छूट दे देना समानता के अधिकार के खिलाफ है।

आधार की संवैधानिकता बरकरार,बैंक खाते से आधार को जोड़ना अब जरूरी नहीं:सुप्रीम कोर्ट

आधार की अनिवार्यता को लेकर सुप्रीम कोर्ट में अहम फैसला सुना दिया। केंद्र के महत्वपूर्ण आधार कार्यक्रम और इससे जुड़े 2016 के कानून की संवैधानिक वैधता को चुनौती देने वाली कुछ याचिकाओं पर बुधवार को सुप्रीम कोर्ट अपना महत्वपूर्ण फैसला सुनाने से पहले बहुमत का फैसला पढ़ते हुए यह माना कि आधार आम आदमी की पहचान है। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि आधार से पैन को जोड़ने का फैसला बरकरार रहेगा। साथ ही कोर्ट ने कहा कि बैंक खाते से आधार को जोड़ना अब जरूरी नहीं। प्रधान न्यायाधीश दीपक मिश्रा के नेतृत्व में पांच न्यायाधीशों की संविधान पीठ ने 38 दिनों तक चली लंबी सुनवाई के बाद 10 मई को मामले पर फैसला सुरक्षित रख लिया था।

आधार एक्ट के सेक्शन 33(2) को सुप्रीम कोर्ट ने निरस्त कर दिया है। इससे डेटा शेयरिंग पर रोक लग जाएगी। इसके अलावा सेक्शन 57 पर भी रोक लगा दी गई है। सेक्शन 57 के तहत सरकार और प्राइवेट कंपनियों को आधार का डेटा मांगने का अधिकार दिया गया है। जस्टिस एके सीकरी ये फैसला पढ़ रहे हैं।

प्राइवेट कंपनियों को बायोमैट्रिक डेटा साझा करने का अधिकार नहीं

फैसले में कहा गया कि प्राइवेट कंपनी बायोमैट्रिक डेटा साझा नहीं कर सकते हैं। इसके अलावा CBSE और NEET आधार को अनिवार्य नहीं कर सकते हैं। स्कूल भी एडमिशन के लिए लिए आधार कार्ड को अनिवार्य तौर पर नहीं मांग सकते हैं। इसके लिए अवैध प्रवासियों को आधार नहीं दिया जाएगा। उन्होंने कहा कि इसके जरिए आधार से हाशिए पर जी रहे लोगों को सुविधा हो रही है।

सुप्रीम कोर्ट ने आधार की संवैधानिकता को बरकरार रखा

सीकरी ने आधार पर फैसला पढ़ते हुए कहा कि राज्य और जनता के हित संतुलित होने चाहिए। संविधान पीठ ने 38 दिनों तक चली लंबी सुनवाई के बाद 10 मई को मामले पर फैसला सुरक्षित रख लिया था। इस पर कुल 31 याचिकाएं दायर की गयी थीं। सुप्रीम कोर्ट ने आधार की संवैधानिकता को बरकरार रखा है। आधार 12 अंको की एक संख्या है जो देश के नागरिकों के लिए पहचान के तौर पर जारी की जाती है। आधार के जरिए कई योजनाओं का फायदा सीधे लाभार्थियों को उनके बैंक अकाउंट में दिया जाता है। आधार कार्ड पर फैसला मुख्य न्यायधीश दीपक मिश्रा और जज एके सिकरी, एएम खानविलकर, डीवाई चंद्रचूड और अशोक भूषण की बैंच ने सुनाया है। आधार के इस फैसले से सरकार और लोगों पर बड़ा असर पड़ेगा।

आधार की सिक्योरिटी और डेटा प्रोटेक्शन को लेकर हमेशा सवाल उठता है। सरकार का दलील है कि आधार के जरिए कई कामों में सुविधा हुई है। अभी UIDAI देश में आधार कार्ड जारी करता है। इसमें लोगों के बायोमेट्रिक, आइरिश और फोटो की जानकारी ली जाती है। ये डेटा UIDAI के सर्वर में रहता है। जिसे भेद पाना बहुत मुश्किल है।

पदोन्नति में आरक्षण पर सुप्रीम कोर्ट ने नया आदेश देने से किया इंकार

पदोन्नति में आरक्षण के बहुप्रतिक्षित मामले में सुप्रीम कोर्ट ने कोई नया आदेश देने से इंकार कर दिया है। सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि इस बारे में नागराजन प्रकरण में वर्ष 2006 में दिए गए आदेश को रिव्यू करने की आवश्यकता नहीं है। मध्यप्रदेश में पदोन्नति में आरक्षण के मुद्दे पर आरक्षित और अनारक्षित वर्ग के बीच टकराव की स्थिति बनी हुई थी। नागराजन के फैसले में सुप्रीम कोर्ट की संवैधानिक पीठ ने पदोन्नति में आरक्षण को असंवैधानिक करार दिया है। इसी आधार पर मध्यप्रदेश हाईकोर्ट ने भी राज्य में दिए जा रहे पदोन्नति में आरक्षण को समाप्त कर दिया था। मध्यप्रदेश सरकार इस फैसले के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट गई थी।

19 अक्टूबर 2006 में नागराजन प्रकरण में सुप्रीम कोर्ट द्वारा दिया गया फैसला

https://indiankanoon.org/doc/102852/

सुप्रीम कोर्ट ने 19 अक्टूबर 2006 में नागराजन प्रकरण में दिए गए अपने फैसले में स्पष्ट तौर पर कहा था कि राज्य संवैधानिक प्रावधानों के तहत पदोन्नति में आरक्षण देने के लिए बाध्य नहीं है। सुप्रीम कोर्ट का निर्णय संवैधानिक प्रावधानों पर आधारित था। उन राज्यों जहां कि पदोन्नति में आरक्षण दिया जा रहा है कि नियमों के बारे में सुप्रीम कोर्ट ने अलग से कोई राय अथवा निर्णय नहीं दिया था। नागराजन प्रकरण में सुप्रीम कोर्ट ने अनुच्छेद 335 का पालन करते हुए पिछड़ेपन और सरकारी नौकरी में उसके प्रतिनिधित्व का डाटा एकत्रित करने के लिए भी कहा था। सुप्रीम कोर्ट ने बुधवार को दिए गए अपने फैसले में कहा कि पिछड़ेपन का अलग से कोई डाटा एकत्रित करने की आवश्यकता नहीं है। नागराजन प्रकरण में सुप्रीम कोर्ट ने पदोन्नति में आरक्षण के मामले में यह भी कहा था कि राज्य सरकारें चाहें तो अपनी स्थिति के अनुसार पदोन्नति में आरक्षण दे सकतीं हैं। लेकिन, यह पचास प्रतिशत की सीमा से अधिक नहीं होना चाहिए।

सांसदों,विधायकों के सदन के कार्यकाल के दौरान वकालत करने पर कोई रोक नहीं:सर्वोच्च न्यायालय

सर्वोच्च न्यायालय ने सांसदों और विधायकों के वकालत करने पर प्रतिबंध लगाने की मांग करने वाली एक याचिका को मंगलवार को खारिज कर दिया। प्रधान न्यायाधीश न्यायमूर्ति दीपक मिश्रा, न्यायमूर्ति डी.वाई. चंद्रचूड़ और न्यायमूर्ति ए.एम. खानविलकर की पीठ ने याचिका को खारिज करते हुए कहा कि जो अधिवक्ता सांसद या विधायक हैं, उन पर अपने सदन के कार्यकाल के दौरान वकालत करने पर कोई रोक नहीं है।

पीठ ने कहा कि बार काउंसिल ऑफ इंडिया (बीसीआई) का कोई नियम या कानून नहीं है जो उन्हें अदालत में वकालत करने से रोकता हो।अदालत का यह फैसला अधिवक्ता और भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के नेता अश्विनी कुमार उपाध्याय द्वारा दाखिल याचिका पर आया है। उपाध्याय ने कहा था कि सांसदों और विधायकों द्वारा अधिवक्ता के रूप में काम करने से एडवोकेट एक्ट 1961 और बार काउंसिल ऑफ इंडिया के नियमों के तहत हितों का टकराव पैदा हो रहा है।

याचिका में सांसदों और विधायकों को उनके कार्यकाल की अवधि तक वकालत करने पर प्रतिबंध लगाने की मांग की गई थी। कपिल सिब्बल, अभिषेक मनु सिंघवी, पी. चिदंबरम, पिनाकी मिश्रा, मीनाक्षी लेखी जैसे कुछ सांसद है, जो अधिवक्ता के रूप में काम कर रहे हैं।

इब्राहिम मोहम्मद सोलिह चुने गए मालदीव के राष्ट्रपति,हमेशा से भारत समर्थित रहे सोलिह

मालदिवियन डेमोक्रेटिक पार्टी (एमडीपी) के इब्राहिम मोहम्मद सोलिह मालदीव के राष्ट्रपति चुने गए है। रविवार को हुए राष्ट्रपति चुनाव में उन्होंने मौजूदा राष्ट्रपति अब्दुल्ला यामीन को हरा दिया। सोलिह को 58.3 प्रतिशत वोट हासिल हुए। जीत के बाद सोलिह ने अपने पहले भाषण में कहा, “यह पल खुशी और उम्मीद का है।” यामीन ने कोई प्रतिक्रिया नहीं दी है। इब्राहिम भारत के साथ मजबूत रिश्तों के हिमायती रहे हैं, जबकि यामीन का झुकाव चीन की तरफ रहा है।

 

राष्ट्रपति चुनाव में 88 फीसदी मतदान हुआ

54 साल के सोलिह को 262,000 हजार वोट में से 133808 वोट मिले, जबकि यामीन को 95,526 वोट मिले। राष्ट्रपति चुनाव में 88 फीसदी मतदान हुआ। इस चुनाव में कोई अन्य उम्मीदवार खड़ा नहीं हुआ था, क्योंकि उनमें से कई उम्मीदवार जेल में थे या फिर कुछ को देश छोड़ना पड़ा था। जीत की घोषणा के साथ ही सोलिह की एमडीपी का पीला झंडा लेकर समर्थक सड़कों पर उतर आए। सोलिह ने कहा कि यामीन को जनता की इच्छा का सम्मान करना चाहिए, क्योंकि जनाधार उनके खिलाफ आया है। उन्हें शांति से सत्ता हस्तांतरण करना चाहिए। उन्होंने राजनीतिक बंदियों को फौरन रिहा करने की अपील भी की।

विवादित रहा है यामीन का कार्यकाल

यामीन नवंबर 2013 में राष्ट्रपति बने थे। उनके कार्यकाल के दौरान राजनीतिक पार्टियों, अदालतों और मीडिया पर कार्रवाई की गई। यामीन के खिलाफ महाभियोग की कोशिश कर रहे सांसदों पर कार्रवाई की गई। इनमें से कई देश छोड़कर चले गए या कुछ को जेल में डाल दिया गया। दरअसल, मालदीव में इसी साल की शुरुआत में सुप्रीम कोर्ट ने सरकार को राजनीतिक बंदियों को छोड़ने का आदेश दिया था। राष्ट्रपति यामीन ने कोर्ट के आदेश को मानने से इनकार करते हुए वहां 15 दिन की इमरजेंसी लागू कर दी थी।

फर्ज़ी वोटर मामले में कमलनाथ की याचिका की सुनवाई 27 सितम्बर तक टली

सुप्रीम कोर्ट फर्ज़ी वोटर मामले में कमलनाथ की याचिका पर 27 सितंबर को सुनवाई करेगा। कमलनाथ ने मध्यप्रदेश की वोटर लिस्ट में बड़ी संख्या में फर्ज़ी वोटर होने की बात कही थी। कमलनाथ की उस याचिका पर चुनाव आयोग ने सुप्रीम कोर्ट में अपना जवाब दाखिल कर दिया था।

अपने हलफनामे में चुनाव आयोग ने कहा था कि वो कांग्रेस और उसके नेताओं के बताए तरीकों के अनुसार देश में चुनाव कराने के लिए बाध्य नहीं है। आयोग ने ये भी कहा था कि कांग्रेस एक खास अंदाज में चुनाव कराने के दिशा-निर्देश जारी न करवाए, क्योंकि चुनाव आयोग पहले से ही कानूनी प्रावधान के तहत चुनाव कराता है। आयोग का कहना है कांग्रेस की याचिका आधारहीन है और इसलिए सुप्रीम कोर्ट कमलनाथ की याचिका खारिज करे।

विकास के पुल बनाए तो बहुत जाते हैं पर टिकते नहीं है

हर व्यक्ति की नजर में विकास की अलग परिभाषा होती है। आर्थिक विकास और सामाजिक विकास की धारा अलग-अलग बहती है। विकास को बताने के सरकारी तौर तरीके अलग होते हैं। सामान्यत: सरकार के विकास के दावों को लोग आसानी से स्वीकार नहीं करते हैं। सरकार द्वारा बताए जाने वाला विकास आकंडों का मकड़जाल ज्यादा होता है। देश के आम नागरिक को सरकार द्वारा जीडीपी के जरिए दिखाए जाने वाला विकास भी कभी समझ में नहीं आता। महंगाई बढ़ी है, इसे हर व्यक्ति समझ लेता है। लेकिन, महंगाई क्यों बढ़ गई या यह उसके लिए समझना थोड़ा कठिन होता है। आम आदमी अर्थशास्त्री नहीं होता। लेकिन, वह अपनी छोटी इनकम का बजट जरूर बनाता है। उसमें नफा-नुकसान तुरत दिख जाता है। वह अपनी आमदनी और खर्च के हिसाब से महंगाई को जांचता है। आज यदि पेट्रोल अस्सी रूपए को पार कर चुका है तो उसे पिछले माह की तुलना में इस माह कुछ ज्यादा पैसा अपने वाहन पर खर्च करना पड़ रहा है। बचत घट गई।  कुछ लोगों के लिए विकास का अर्थ रोजगार के अवसर होते हैं। युवा यदि बेरोजगार है तो वह सरकार को विकास करने वाली सरकार नहीं मान सकता। विकास का सीध संबंध सरकार की नीतियों से भी होता है। सरकार की नीतियां विकास के लिए ही बनाई जाती हैं। चाहे गरीबों को सस्ती स्वास्थ्य सुविधा उपलब्ध कराने की नीति हो अथवा विभिन्न क्षेत्रों में विदेशी निवेश की मंजूरी देने की नीति हो। रूपए के मुकाबले में डॉलर के कमजोर होने से भारत की अर्थ व्यवस्था पर पड़ने वाले फर्क को भी आम आदमी नहीं समझता है। डॉलर का अर्थशास्त्र कई देशों की अर्थ व्यवस्था को प्रभावित करता है। देश की आजादी के पहले अंगे्रजों ने वर्ष 1917 में जब पहली बार एक रूपए का नोट भारतीय मुद्रा के तौर पर जारी किया था, तब वह तेरह डॉलर खरीदने की क्षमता रखता था। आज एक रूपया देश में ही अपना वजन नहीं रखता है। आजादी के वक्त एक डॉलर की कीमत साढ़े तीन रूपए थी। अंगे्रजों ने भारत को भौतिक रूप से आजाद जरूर किया लेकिन आर्थिक गुलामी अभी भी चली आ रही है। बड़े-बड़े अर्थशास्त्री रूपए को संभाल नहीं पा रहे हैं। फिर भी सरकारें चलती रहतीं हैं और विकास होता रहता है।
रूपया,विकास और भ्रष्टाचार को कभी भी अलग-अलग करके नहीं देखा जा सकता। विकास के साथ भ्रष्टाचार जुड़ा हुआ है। भ्रष्टाचार और रूपया एक सिक्के के दो पहलू हैं। हाल ही में मध्यप्रदेश के श्योपुर जिले में कूनो नदी पर बनाया गया पुल पहली बारिश भी नहीं झेल पाया। बह गया। विकास के इस तरह के पुल लगातार बनते रहते हैं। ऐसे पुल टिकते नहीं है। कारण सिर्फ भ्रष्टाचार है। मध्यप्रदेश सरकार ने इस पुल को अपने विकास के मॉडल के तौर पर पेश किया था। यह पुल श्योपुर को व्हाया शिवपुरी, ग्वालियर से जोड़ता है। पुल का उद्घाटन केन्द्रीय मंत्री नरेन्द्र सिंह तोमर ने किया था। तोमर के वर्तमान, पुराने और भावी संससदीय क्षेत्र के लिहाज से यह पुल काफी महत्वपूर्ण था। सरकार के पास इस बात का कोई जवाब नहीं है कि तीन माह में विकास का पुल आखिर कैसे बह गया? यह सवाल जनता भी पूछ रही है और सत्ताधारी दल के क्षेत्रीय विधायक भी पूछ रहे हैं। खुद की तारीफों के पुल बनाना आसान है। सड़क,बिजली और पानी का संबंध भी विकास से ही है। विकास के पुल का संबंध ई-टेंडरिंग के घोटाले से तो नहीं है?सरकार की वर्तमान व्यवस्था में पुल बहने पर किसी भी अधिकारी की प्राथमिक जिम्मेदारी नहीं बनती है। पुल पहले भी ठेके पर बनबाए जाते थे और आज भी बनवाए जाते हैं। ठेका किसे मिलेगा यह पहले ठेकेदार आपस में मिलकर तय कर लेते थे। ई-टेंडरिंग की व्यवस्था लागू होने के बाद ठेकेदारों को आपस में मिलने की जरूरत नहीं होती। अफसर से ही मिलने से टेंडर फिक्स हो जाता है। अफसर-अफसर मिल बैठकर तय कर लेते हैं। ई-टेंडरिंग घोटाल भी जीडीपी की तरह ही जो आम आदमी को समझ में आसानी से नहीं आ रहा है। ई-टेंडरिंग के घोटाले ने मध्यप्रदेश सरकार में चल रही संगठित लूट में शामिल ऐसे चेहरों की ओर इशारा किया जिन पर काली कालिख पुती हुई है। कालिख साफ कर चमकदार चेहरों को सामने लाने का काम जांच एजेंसी का है। ई-टेंडरिंग के घोटाले की जांच एजेंसी राज्य आर्थिक अपराध अनुसंधान ब्यूरो है। इस मामले में सबसे चौंकाने वाला पहलू यह है कि राज्य के मुख्य सचिव बसंत प्रताप सिंह के लिखित आदेश के बाद भी अपराध कायम करने का साहस जांच एजेंसी नहीं दिखा पा रही है। शायद घोटाले में शामिल लोग मुख्य सचिव से भी ज्यादा ताकतवर हो? वैसे शिकायत के बाद भी अपराध कायम न करना भी अपराध की श्रेणी में आता है। सुप्रीम कोर्ट की गाइड लाइन भी है। अपराध दर्ज न करने वाले पुलिस अफसर की नौकरी भी जा सकती है और जेल भी जा सकता है। महाराष्ट्र में ऐसा हो भी चुका है।
पिछले एक दशक में सरकार की नीति के कारण निर्माण क्षेत्र में छोटे ठेकेदारों को बाहर का रास्ता दिखा दिया गया है। अब ठेके भी कारपोरेट के अंदाज में दिए जाते हैं। कारपोरेट जिस तरह से किसी कर्मचारी की नियुक्ति का पैकेज देता है, उसी तरह से मध्यप्रदेश सरकार ने भी निमार्ण कार्य के लिए पैकेज बनाकर ठेके देने की नीति बना रखी है। छोटे ठेके कम ही निकलतें हैं। दो-चार सौ करोड़ के ठेके बहुत निकलते हैं। पैकेज अलग-अलग मार्गों या पुल को एक ही टेंडर में जोड़कर तैयार किया जाता है। इस व्यवस्था को लागू करने के कई कारण हैं। ठेके की शर्त ऐसी डिजाइन की जाती है कि करोड़ों का टर्न ओवर करने वाली कंपनी ही हिस्सा ले पातीं हैं। पैकेज बनाकर ठेके देने का एक अन्य कारण अफसरों के वित्तीय अधिकार से जुड़ा है।   ठेका जितना बड़ा होगा,उतने ही बड़े स्तर पर मंजूरी के लिए भेजा जाएगा। भोपाल के गेमन प्रोजेक्ट में आए ऑफर को कैबिनेट की मंजूरी के बाद जारी किया गया था। जबकि काम मुख्य सचिव की अध्यक्षता वाली हाईपावर कमेटी का था। उच्च स्तर की नौकरशाही को लेकर यह धारणा अभी भी भी बनी हुई है कि वह साफ-सुथरा काम करती है। लेकिन, वर्तमान में गड़बड़ी को रोग उच्च स्तर पर ज्यादा दिखाई दे रहा है। धीरे-धीरे नीचले स्तर के अधिकार उच्च स्तर के अफसरों ने हथिया लिए हैं। परिणामत: नीचले स्तर पर सुपरवीजन जिस तरह से होना चाहिए,उसका अभाव पूरी व्यवस्था में दिखाई देता है। अधिकारियों की पदस्थापना के मापदंड भी बदल चुके हैं। विकास की दौड़ में पुल टूट रहे हैं लेकिन, नेता और अफसर मजबूती से खड़े हैं। पुल टूटने जैसी घटनाओं पर शर्म से किसी का सिर झुका हुआ दिखाई नहीं दे रहा है। सिस्टम के पास जवाब है कि पुल बनाने वाली एजेंसी के जिम्मे मेन्टेनेंस भी है। टूट-फूट के लिए यहां वही फार्मूला लगता है जो भूल-चूक,लेनी-देनी का होता है।
 ड़ेढ दशक पहले हुए चुनाव में  सड़क,बिजली और पानी तीनों ही बड़े मुद्दे के तौर पर उभर कर सामने आए थे। आज भी चुनाव में नेता अमेरिका जैसी सड़क की चर्चा प्रदेश की टूटी-फूटी सड़कों पर कर रहे हैं। गांव में बिजली न मिलने की शिकायत पर सरकार के मंत्री नारायण सिंह कुशवाह को यह कहने में कोई तकलीफ नहीं होती कि बिजली उनकी जेब में नहीं रखी जो निकाल कर दे दें। कुशवाह ने यह बात उसी श्योपुर में कही जहां विकास का पुल सौ दिन भी नहीं टिका था। बिजली की मांग करने वाली आंगनवाड़ी कार्यकर्त्ता को कलेक्टर ने अगले ही दिन नौकरी से बाहर ही कर दिया। आगंनवाड़ी कार्यकर्त्ता कांगे्रस की कार्यकर्त्ता भी थी।
दिनेश गुप्ता

भारत में समलैंगिकता अपराध नहीं है,अप्राकृतिक संबंध है जायज़:सुप्रीम कोर्ट

समलैगिक संबंधों को लेकर सुप्रीम कोर्ट में दायर की गई याचिका पर अपना एतिहासिक फैसला देते हुए कहा है कि अपासी सहमति से बनाए गए आप्राकृतिक संबंधों को जायज ठहराया है। सुप्रीम कोर्ट ने अनुच्छेद 377 के कुछ प्रावधानों को मौलिक अधिकारों का हनन माना है। सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में कहा कि हर व्यक्ति को अपने हिसाब से जिदंगी बिताने का संवैधानिक अधिकार है। सुप्रीम कोर्ट की पांच सदस्यीय बैंच ने कहा कि समलैकिं लोगों को भी सम्मान से जीने का अधिकर है। चीफ जस्टिस दीपक मिश्रा ने कहा कि मैं जो हूं,वो हूं, लिहाजा जैसा में हूं उसी रूप में स्वीकार किया जाए।