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कांग्रेस के निराश कार्यकर्ता से चुनाव हारने और जीतने की रणनीति

Strategy to win and lose elections from disappointed Congress workers

लोकसभा चुनाव की तैयारियों के केंद्र में कांग्रेस के कार्यकर्ता का निराशा का भाव महत्वपूर्ण हो गया है। भारतीय जनता पार्टी को लोकसभा की सभी 29 सीटें जीतने में आशा की किरण भी कांग्रेस के कार्यकर्ता की निराशा ही है। भारतीय जनता पार्टी के सबसे ताकतवर नेता और देश के गृह मंत्री अमित शाह ने एक दिन में मध्यप्रदेश के तीन अलग-अलग स्थानों पर बैठकें लीं। इन बैठकों में एक स्वर समान रूप से सुनाई दिया और वह है कांग्रेस के निराश कार्यकर्ता के गले में भाजपा का भगवा गमछा डालना। अमित शाह ने रविवार को ग्वालियर, खजुराहो और भोपाल में अलग-अलग बैठक ली थीं। ग्वालियर में कार्यकर्ताओं से बातचीत में जो चार मंत्र दिए हैं उसमें कमोबेश वही रणनीति सामने आई जो विधानसभा चुनाव से पहले देखने को मिली थी।

भाजपा की चुनावी राजनीति हमेशा से बूथ आधारित रही है। किसी दौर में एक बूथ,दस यूथ का नारा दिया गया था। यह वो दौर था जब भाजपा के पास कार्यकर्ता नहीं थे। पार्टी अपना विस्तार करने के लिए हर बूथ पर दस युवा जोड़ने का लक्ष्य लेकर चली थी। आज वह विश्व का सबसे बड़ा राजनीतिक दल है। उसके कार्यकर्ता की संख्या करोड़ों में है लेकिन, चुनावी रणनीति बूथ को मजबूत रखने की है। बस तरीका अलग है। इस बार लोकसभा चुनाव में भाजपा कांग्रेस के खिलाफ निर्णायक लड़ाई लड़ रही है। कांग्रेस मुक्त भारत की लड़ाई को वह कांग्रेस मुक्त बूथ पर ले आई है। उसी विचारधारा और समर्पित काडर कांग्रेसियों के चेहरे में जीत देख रहे हैं।


शाह के वो चार मंत्र जिससे बूथ होगा कांग्रेस मुक्त?


अमित शाह ने लोकसभा चुनाव को जीतने के लिए कार्यकर्ताओं को जो मंत्र दिया है,उसमें कांग्रेस कार्यकर्ता को भाजपा में लाना सबसे अहम है। भाजपा,कांग्रेस के कार्यकर्ता को अपने दल में शामिल कराने के लिए उतावली क्यों है? क्या इससे उसका मूल कार्यकर्ता निराश नहीं होगा? ये वो अहम सवाल थे, जिनका जवाब अमित शाह ने दिया। अमित शाह ने पार्टी कार्यकर्ता को यह भरोसा दिलाया है कि दल बदल कर आने वाले नेताओं से उसका अधिकार खतरे में नहीं पड़ेगा? फिर यह सवाल उठता है कि कांग्रेस का जो कार्यकर्ता भाजपा में आएगा तो वह भी पद प्रतिष्ठा के लिए ही आएगा। जैसा कि अन्य मामलों में देखा गया। होशंगाबाद से सांसद रहे राव उदय प्रताप सिंह भाजपा में शामिल हुए तो पार्टी ने उन्हें टिकट भी दी। भाजपा का मूल कार्यकर्ता राव उदय प्रताप सिंह के सामने कब टिका?

हक मूल कार्यकर्ता का मारा गया। ऐसे और भी उदाहरण हैं। भाजपा कार्यकर्ता के बजाए दलबदल कर आए नेता टिकट पा रहे हैं। कांग्रेस के नेताओं को अपना भविष्य सुरक्षित नहीं लगेगा तो वे भाजपा में आएंगे भी नहीं। दलबदल का यह मॉडल, गुजरात मॉडल का ही हिस्सा है। इस मॉडल की सफलता में बूथ भी महत्वपूर्ण है। बूथ पर विरोधी दल के परंपरागत वोट को तोड़कर पार्टी में लाना फिर उसका शुद्धिकरण। शुद्धिकरण भाजपा की विचारधारा को रटाकर किया जाता है। इसके बाद संस्कारीकरण की परंपरा शुरू होती है। जब बूथ पर पार्टी का विस्तार, शुद्धिकरण हो जाए तो वहां कार्यकर्ता को संस्कारीकरण करना शुरू हो जाता है। । मतलब यहां लोगों को बताना है कि भाजपा में कार्यकर्ता ही सबसे बड़ा होता है। यहां विकास, सिद्धांत, पारदर्शिता के जो संस्कार हैं, उससे बूथ को संस्कारित करना है, जिससे हर बूथ पर भाजपा की पकड़ मजबूत हो सके।


गृहमंत्री अमित शाह ने क्लस्टर बैठक में कार्यकर्ताओं से कहा कि जब पहले तीन मंत्र पूरे हो जाएं तो चौथा मंत्र है- बूथ को परिपूर्ण कर उसे अजेय बनाना। मतलब जब बूथ आपका हो जाएगा तो उसे कांग्रेस मुक्त बनाकर उसे अजेय बना देना, जिससे वहां भाजपा की जीत के अलावा कुछ और न सुनाई दे न दिखाई दे।


कांग्रेस निराश कार्यकर्ता में कैसे भरेगी ऊर्जा


भारतीय जनता पार्टी की दल बदल की रणनीति से कांग्रेस में चिंता स्वाभाविक है। कांग्रेस अपने निराश कार्यकर्ता में ऊर्जा भरने के लिए क्या कर रही है? क्या ईवीएम में गड़बड़ी के आरोप से पार्टी का कार्यकर्ता उत्साहित हो जाएगा? इस बारे में पार्टी के अधिकांश बड़े नेता इस पर सहमत नहीं होंगे। पार्टी कार्यकर्ता को जोड़कर कैसे रखा जाए,इसकी कोई रणनीति सामने दिखाई नहीं दे रही। राज्य के प्रभारी महासचिव भंवर जितेन्द्र सिंह तो कह चुके हैं जिसे जाना है,उसके लिए दरवाजे खुले हुए हैं। इस तरह के बयान पार्टी के छोटे कार्यकर्ता में असुरक्षा का भाव भी भर रहे हैं। उसके सामने जब कमलनाथ जैसे नेताओं के नाम दल छोड़ने की संभावना से जुड़कर सामने आते हैं तो उसे बचाव के लिए कहना पड़ता है कि अच्छा है फूल छाप कांगे्रसी चले जाएं? ऐसी स्थिति में कमलनाथ की जिम्मेदारी बनती है कि वे ड्राइंग रूम से मैदान में आएं और पार्टी का वॉर रूम संभालें। रविवार को गृह मंत्री अमित शाह जब अपने कार्यकर्ता को दल बदल का मंत्र सिखा रहे थे,ठीक उसी वक्त कमलनाथ एक वर्चुअल मीटिंग में अध्यक्ष जीतू पटवारी को सलाह दे रहे थे कि उम्मीदवार जल्द घोषित किए जाएं।


कांग्रेस में मुश्किल है पहले उम्मीदवारों की घोषणा


विधानसभा चुनाव के समय भी कमलनाथ लगातार इस बात को कह रहे थे कि वे उम्मीदवार की घोषणा तीन-चार माह पहले कर देंगे। इससे उन्हें प्रचार करने के लिए समय मिल जाएगा। लेकिन, कांग्रेस ने अपनी रीति-नीति के अनुसार ही उम्मीदवारों की घोषणा की। भारतीय जनता पार्टी ने पहले उम्मीदवारों की घोषणा कर सभी को चौंका दिया था। लोकसभा चुनाव में भी भारतीय जनता पार्टी अपने कुछ उम्मीदवार चुनाव की घोषणा से पहले ही करने की तैयारी में है। कांग्रेस में टिकट की घोषणा राहुल गांधी की न्याय यात्रा के पूरे होने के बाद ही संभव दिखाई देती है। न्याय यात्रा का समापन सात मार्च को होगा। इससे पहले 2 मार्च को यात्रा मध्यप्रदेश में प्रवेश करेगी। इसके बाद आगे निकल जाएगी। कांग्रेस ने उम्मीदवारों के नाम का पैनल जरूर तैयार कर लिया है। कमलनाथ चाहते हैं कि जिन्हें टिकट देना है उन्हें पहले बता दिया जाए। इसमें खतरा यह बना रहेगा कि भाजपा अंतिम समय पर उनके किसी उम्मीदवार का दलबदल करा दे। जैसा कि 2014 के लोकसभा चुनाव के समय हुआ था। डॉ. भागीरथ प्रसाद कांग्रेस से टिकट लेकर भाजपा में शामिल हो गए थे। भाजपा ने उन्हें भिंड से अपना उम्मीदवार बनाया था। भागीरथ प्रसाद के दल बदल के कारण कांग्रेस को अंतिम समय में अपना नया उम्मीदवार देना पड़ा था।


कांग्रेस की एनओसी रणनीति कितनी कारगर


भारतीय जनता पार्टी के मुकाबले में कांग्रेस अपना बूथ बचाने के लिए क्या कर रही है? यह भी महत्वपूर्ण सवाल है जो कांग्रेस के मैदानी कार्यकर्ता के जहन में भी है। कांग्रेस के मैदानी कार्यकर्ता की सक्रियता उम्मीदवार की घोषणा पर निर्भर करती है। हर उम्मीदवार अपने हिसाब से रणनीति बनाता है। कई बार तो बूथ कार्यकर्ता तक उसकी पहुंच ही नहीं हो पाती। भाजपा जैसी पन्ना प्रभारी की व्यवस्था यहां नहीं चल पाती। फिर कांग्रेस माहौल बनाने की पूरी कोशिश कर रही है। कांग्रेस प्रभारी महासचिव भंवर जितेंद्र सिंह भाजपा की रणनीति का लगातार अध्ययन कर रहे हैं। इसके आधार उन्होंने अगले तीन दिन में बूथ कार्यकर्ता तक वोटर लिस्ट पहुंचाने के लिए कहा है। कार्यकर्ता से अपने बूथ के वोटर के बारे में रिपोर्ट भी मांगी है। इस रिपोर्ट में तीन श्रेणी निर्धारित करना है। पहली श्रेणी उस वोटर की रखी गई है जो कांग्रेस को वोट नहीं देता। इसे एन का नाम दिया गया है। दूसरी श्रेणी न्यूट्रल वोटर की है। इसे ओ श्रेणी बनाकर रखा जाना है। तीसरी श्रेणी कांग्रेस के प्रतिबद्ध वोटर की है। इसे सी श्रेणी दी गई है। एनओसी रिपोर्ट की निगरानी अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी करेगी। यह कांग्रेस की योजना है। यह अमल कितनी आती है,यह जल्द सामने होगा।


कमलनाथ को छिंदवाड़ा को जीतने भाजपा की मैदानी जंग


भारतीय जनता पार्टी को अपना 370 सीटों का लक्ष्य पूरा करना है तो छिंदवाड़ा की लोकसभा सीट उसे हर हाल में जीतना होगी। गृह मंत्री अमित शाह ने ग्वालियर से लेकर भोपाल तक की बैठक में सिर्फ छिंदवाड़ा की बात की। पिछले लोकसभा चुनाव में पार्टी ने 29 में से 28 सीटें जीतीं थीं। भाजपा यह मानकर चल रही है कि मोदी की गारंटी से 28 सीटें फिर उसके खाते में होंगी। लेकिन, 29 वीं सीट छिंदवाड़ा में मुश्किल कम करने के लिए उसे दल बदल का सहारा लेना पड़ रहा है। उसकी मैदानी रणनीति काफी कसी हुई है। कमलनाथ के छिंदवाड़ा लौटने से पहले ही उनके कई नजदीकियों को भगवा दुपट्टा पहना दिया। पांढुर्णा के नगर पालिका अध्यक्ष, 7 पार्षद, 16 सरपंच और जनपद सदस्य भाजपा में शामिल हो गए हैं। भाजपा ने यहां जिला अध्यक्ष से लेकर बूथ अध्यक्ष तक को टारगेट दिया है। काम है कांग्रेस के लोगों का भरोसा जीतकर उन्हें अपना बनाओ।  जिला अध्यक्ष से लेकर पन्ना प्रमुख तक इसी काम लगे लोगों का मन बदलने के मिशन में।  पार्टी इस बात का भी रिकॉर्ड रख रही है कि किसने कितने कांग्रेसी तोड़े।  गांवों में रात्रि विश्राम कार्यक्रम चलाया जा रहा है। मॉनिटरिंग राज्य और केंद्र दोनों स्तर पर हो रही है। कई बार प्रदेश मुख्यालय से किसी भी कार्यकर्ता के पास सीधे फोन कर जानकारी ली जाती है। मंडल अध्यक्ष हफ्ते में एक बार शक्ति केंद्र अध्यक्षों और बूथ अध्यक्षों के साथ मीटिंग करता है। हफ्तेभर के काम का अपडेट लेता है।


इसी तरह बूथ अध्यक्ष पन्ना प्रभारियों की साप्ताहिक बैठक लेता है। अभी हम गांव-गांव में बूथ चलो अभियान चला रहे हैं। इस अभियान के तहत भाजपा जिला संगठन के कार्यकर्ता, क्षेत्र के मंडल अध्यक्ष, शक्ति केंद्र अध्यक्ष, बूथ अध्यक्ष और पन्ना प्रभारी गांव-गांव जाते हैं। वहां रात्रि विश्राम करते हैं। संगठन से जुड़े लोगों के यहां ही भोजन करते हैं।पूरे गांव को इकट्ठा कर नुक्कड़ सभाएं करते हैं। लोगों को सरकार की जनकल्याणकारी योजनाओं के बारे में बताते हैं। इससे प्रभावित होकर कई लोग वहीं भाजपा जॉइन कर लेते हैं। बूथ चलो अभियान के तहत हम घर-घर जाकर मतदाताओं को जागरूक कर रहे हैं। बूथ से बूथ को जोड़ते जा रहे हैं।

वे चेहरे तो सामने आ ही गए जो भाजपा में जाने की इच्छा रखते हैं

Those faces who wish to join BJP have already come forward.
Those faces who wish to join BJP have already come forward.


भारतीय जनता पार्टी की राष्ट्रीय परिषद की बैठक के साथ जिस बात की सबसे ज्यादा चर्चा हो रही थी,वह कमलनाथ और उनके पुत्र नकुल नाथ के कांग्रेस छोड़ने की थी। मीडिया ने पिछले एक सप्ताह में इस तरह का माहौल बना दिया था कि गांव-गांव,गली-गली सिर्फ कमलनाथ की ही चर्चा हो रही थी। राष्ट्रीय परिषद की बैठक में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी क्या संदेश दे रहे हैं,इससे ज्यादा यह जानने में लोगों की दिलचस्पी थी कि कमलनाथ के साथ कुल कितने विधायक कांग्रेस छोड़ रहे हैं? सोशल मीडिया पर सूत्रों के हवाले यह खबर भी चर्चा में आ गई थी कि कमलनाथ रविवार शाम पांच बजे भाजपा की सदस्यता ले लेंगे। राष्ट्रीय परिषद को न तो कमलनाथ का इंतजार था और न ही कमलनाथ भी वहां पहुंचे। लेकिन,इस पूरे मामले में सवाल यह उठ रहा है कि कमलनाथ भाजपा में शामिल हो रहे हैं,इसकी चर्चा कहां से शुरू हुई? इस चर्चा के बीच प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जो राष्ट्रीय परिषद की बैठक में कहा,वह भी कम महत्वपूर्ण नहीं है। प्रधानमंत्री ने भाजपा कार्यकर्ता को सौ दिन का का समय नए वोटर के साथ संपर्क बनाने के लिए दिया है। जाहिर है कि अगले सौ दिन देश की राजनीति के लिहाज से बेहद महत्वपूर्ण होने वाले हैं। इन सौ दिन में ही केंद्र में नई सरकार आ जा जाएगी। जीत की हैट्रिक बनाने के लिए कार्यकर्ताओं को 370 सीट जीतने का लक्ष्य दिया गया है। हर राज्य के हिसाब से पार्टी ने अलग-अलग रणनीति बनाई है। मध्यप्रदेश में पार्टी ने सभी 29 सीटें जीतने का लक्ष्य रखा है। पिछले लोकसभा चुनाव में उसे 28 सीट मिलीं थीं। 29 वीं सीट छिंदवाड़ा की है। छिंदवाड़ा का संबंध कमलनाथ से है। पिछले एक सप्ताह से उनके भाजपा में शामिल होने को लेकर जो हंगामा मचा था,उसमें अब पूरी तरह विराम लग गया है।


भाजपा का संपर्क अभियान और चुनाव की तारीख


लोकसभा के चुनाव की तारीखों को लेकर अभी अटकलबाजी ही चल रही है। लेकिन, अनुमान है कि दस मार्च को आम चुनाव की घोषणा हो जाएगी। भाजपा कार्यकर्ता का नए वोटर से संपर्क करने का अभियान और चुनाव प्रचार साथ-साथ चलेगा। चुनाव सात चरणों में होंगे। लगभग दो माह का समय पूरी चुनाव प्रक्रिया में लगता है। प्रधानमंत्री ने अपने पार्टी जनों को जो सौ दिन का लक्ष्य नए वोटर से संपर्क के लिए दिया है,उसमें यह स्वर भी सुनाई देता है कि चुनाव की घोषणा सौ दिन बाद होगी। लेकिन,ऐसा होने वाला नहीं है। चुनाव आयोग को मौजूदा लोकसभा का कार्यकाल पूरा होने से पहले चुनाव कराना है। भाजपा को भी अपनी सीटें 370 करने के लिए चारों दिशाओं में जीत का परचम लहराना होगा। इसके लिए जरूरी है कि अन्य राजनीतिक दल के जनाधार वाले नेता भी उसके साथ जुड़े। इसके लिए सोमवार से देशव्यापी मेगा सदस्यता अभियान भी शुरू किया है। महाराष्ट्र में अशोक चव्हाण की इंट्री सदस्यता अभियान का ही हिस्सा थी। अशोक चव्हाण के अलावा भी कुछ और नेता महाराष्ट्र में भाजपा की सदस्यता ले सकते हैं। राजस्थान में कांग्रेस विधायक महेंद्रजीत मालवीय भाजपा में शामिल हो गए हैं। मालवीय आदिवासी बाहुल्य क्षेत्र बांसवाड़ा से आते हैं। भाजपा की रणनीति आदिवासी इलाकों में अपनी पकड़ बनाकर रखने की है। देश के लगभग हर राज्य में आदिवासी सीटों के हिसाब से भाजपा की रणनीति अलग-अलग देखने को मिलती है। राजस्थान में हलचल सोनिया गांधी के राज्यसभा चुनाव लड़ने से है। भाजपा की कोशिश है कि वह निर्वाचन परिणाम घोषित होने से पहले कांग्रेस को बड़ा झटका दे दे। लगभग सात कांग्रेस विधायक दलबदल की तैयारी में दिख रहे हैं। लेकिन,इससे सोनिया गांधी के निर्विरोध राज्यसभा सदस्य निर्वाचित होने पर कोई फर्क नहीं पड़ने वाला। भाजपा की चिंता राज्य की 25 लोकसभा सीटें हैं। पिछले चुनाव में उसने सभी 25 सीटें जीतीं थीं।


कमलनाथ के प्रभाव क्षेत्र की चार लोकसभा सीट


कमलनाथ कांग्रेस के कद्दावर नेता हैं। कांग्रेस के कई ऐसे नेता हैं जो कमलनाथ को ही हाईकमान मानते हैं। गांधी परिवार के नजदीक होने के कारण उन्हें यह रूतबा हासिल भी  है। कमलनाथ का नाम कांग्रेस अध्यक्ष के तौर पर भी चर्चा में आया था। लेकिन,मल्लिकार्जुन खरगे के पक्ष में समीकरण बने। खरगे का नाम सामने आने के बाद ही दिग्विजय सिंह अध्यक्ष का चुनाव लड़ने से पीछे हट गए थे। कमलनाथ छिंदवाड़ा की जिस लोकसभा सीट से चुनाव जीतते रहे हैं,उसमें भी आदिवासियों की बड़ी तादाद है। आदिवासी वर्ग लंबे समय से कांग्रेस का साथ दे रहा है। हाल ही के विधानसभा चुनाव में भी आदिवासी सीटों का रुझान कांग्रेस के पक्ष में देखने को मिला है। लोकसभा की कुल दस सीटों पर भाजपा पिछड़ती दिखाई दी हैं। इनमें छिंदवाड़ा के अलावा मंडला की लोकसभा सीट भी है। गोंड आदिवासी बाहुल्य इस क्षेत्र में भाजपा की जीत में गोंडवाना गणतंत्र पार्टी ,भाजपा की कभी मदद करती रही है। कमलनाथ की इस वर्ग पर अच्छी पकड़ है। कमलनाथ यदि भाजपा में जाते तो राष्ट्रीय स्तर कांग्रेस को बड़ा झटका लग सकता था। भाजपा को भी एक मजबूत चेहरा छिंदवाड़ा सीट के लिए मिल जाता । इसका असर मंडला बालाघाट के अलावा जबलपुर की लोकसभा सीट पर पड़ता? विधानसभा चुनाव में छिंदवाड़ा लोकसभा क्षेत्र में आने वाली सभी सात सीटें कांग्रेस जीतने में सफल रही है। मंडला लोकसभा सीट की निवास सीट से चुनाव लड़े केंद्रीय मंत्री फग्गन सिंह कुलस्ते चुनाव हार गए थे।


कमलनाथ का अपनी टीम से संवाद का अभाव


कमलनाथ के प्रकरण में एक बात पूरी तरह से साफ हुई है कि उन्होंने खुद जानबूझकर मामले को हवा दी। हो सकता है कि उनका इरादा कांग्रेस नेतृत्व पर दबाव बनाकर अपनी स्थिति को सुरक्षित करना रहा हो? कमलनाथ चाहते तो पहले ही दिन इस बात का खंडन कर सकते थे कि उनके दलबदल को लेकर जो खबर चल रहीं हैं वो गलत है। मीडिया यदि उनकी बातों को गलत तरीके से लोगों के सामने रख रहा था तो भी वे सोशल मीडिया के जरिए अपनी स्थिति स्पष्ट कर सकते थे। कमलनाथ अपने बेहतर प्रबंधन के लिए जाने जाते हैं। लेकिन,संवाद की कमी इस पूरे प्रकरण भी उनके खिलाफ चली गई। उनके समर्थकों को भी उनका अगल कदम पता नहीं था। यही कारण है कि जिसे जो ठीक लगा वह मीडिया को अपना बयान देता रहा है। सज्जन सिंह वर्मा जैसे समर्थक भी  दलबदल की बात से अंजान थे। यही वजह है कि उन्हें तीन दिन में तीन तरह के बयान देने पड़े। हर समर्थक दूसरे समर्थक की ओर ताक रहा था। किसी की हिम्मत नहीं हो रही थी कि वह कमलनाथ से बात कर वस्तुस्थिति का पता लगा ले। ऊपर से भगवान राम के ध्वज ने मीडिया को खूब मसाला दिया।  भाजपा नेताओं ने भी इस पूरे मामले को हवा देने में कोई देर नहीं की। प्रदेश अध्यक्ष वीडी शर्मा का बयान मीडिया में ऐसे रखा गया जैसे वे कमलनाथ को पार्टी में आमंत्रण दे रहे हो? कमलनाथ को पार्टी में केवल एक ही व्यक्ति से संवाद करने की जरूरत है, वह प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी हैं। दूसरी महत्वपूर्ण बात यह है कि पार्टी अपनी राष्ट्रीय परिषद की बैठक के मंच का उपयोग दल बदल कर आए नेता के लिए नहीं करती। कमलनाथ यदि अपने दिल्ली जाने के कार्यक्रम में बदलाव नहीं करते तो संभव है कि विवाद खड़ा ही नहीं होता। वैसे भी कमलनाथ शनिवार और रविवार का दिन निजी कार्यों के लिए रखते आए हैं। उनका दिल्ली जाना ऐसे दिनों में हुआ,जब भाजपा की राष्ट्रीय परिषद की बैठक हो रही थी।


दलबदल का भाव रखने वाले चेहरे उजागर


मीडिया और सोशल मीडिया पर जिस तरह से कमलनाथ के दल बदल की खबरों का शोर मचा उसमें वे चेहरे जरूर सामने आ गए जो अब कांग्रेस में अपना भविष्य नहीं देखते हैं। कांग्रेस पार्टी के भीतर की गुटबाजी को लेकर हमेशा से बदनाम रही है। कांग्रेस का झंडा पकड़े चल रहा हर नेता अपने को ही पार्टी मानता है। इसी कारण जब नेता दल बदल करता है तो समर्थक भी साथ चल देते हैं। कमलनाथ के दल बदल की खबरें देखकर उनके समर्थक भी भाजपा में जाने की तैयारी करते दिखे। ग्वालियर,मुरैना और छिंदवाड़ा के महापौर के साथ जाने की बात होने लगी। ऐसे विधायकों के नाम भी सामने आने लगे जो अपना भविष्य भाजपा में देख रहे हैं। कुछ ने तो साफ तौर पर कहा कि जहां कमलनाथ,वहां हम। लेकिन,कमलनाथ के गढ़ छिंदवाड़ा के ही विधायक सोहनलाल वाल्मीकि ने तो एक वीडियो जारी कर अपील की कि कांग्रेस का नेतृत्व करते रहें। साथ ही यह भी जोड़ दिया कि विधायक उनके नेतृत्व में काम करना चाहते हैं। दीपक सक्सेना ने तो यहां तक कह दिया कि पार्टी में उनकी उपेक्षा हो रही थी। दीपक सक्सेना वफादारी दिखाने के चक्कर में शायद यह भी भूल गए कि कमलनाथ के नेतृत्व में पार्टी 2019 का लोकसभा चुनाव ही नहीं हारी थी 2023 के चुनाव में चालीस प्रतिशत वोट होने के बाद भी सरकार बनाने लायक सीटें हासिल नहीं कर पाई। 28 सीटों के उप चुनाव की पराजय को भी नहीं भुलाया जा सकता। पार्टी नेतृत्व ने कमलनाथ के सम्मान के चलते ही मध्यप्रदेश को दांव पर लगाया था।


सज्जन वर्मा के लिए खुल सकते थे संभावना के द्वारा


पूर्व मंत्री सज्जन वर्मा काफी उत्साहित थे। उन्होंने भी कमलनाथ के मान-सम्मान का मसला सार्वजनिक तौर पर उठाया। अपने चालीस साल के रिश्तों का हवाला देकर कमलनाथ के साथ जाने को तैयार थे। दरअसल सज्जन वर्मा का स्वार्थ इस मामले में हो सकता है? वर्मा,कमलनाथ के करीबी हैं। यह बात छुपी हुई नहीं है। कमलनाथ भाजपा में जाते तो सज्जन सिंह वर्मा देवास-शाजापुर लोकसभा सीट से टिकट के दावेदार हो जाते। इस सीट पर वर्मा वर्ष 2009 में चुनाव जीते थे। इसके बाद से यहां भाजपा जीत रही है। विधानसभा चुनाव में वर्मा सोनकच्छ से विधानसभा चुनाव हार गए। 2028  में चुनाव लड़ने का मौका मिलेगा,इसकी उम्मीद कम है। वे अब अपने पुत्र और भतीजे के भविष्य को लेकर भी सक्रिय रहते हैं। कमलनाथ के साथ भाजपा में जाने की इच्छा रखने वाले ज्यादा नेता निमाड़-मालवा में ही दिखाई दिए। धार में मोहन बुंदेला के पुत्र कुलदीप सिंह बुंदेला ने भी भाजपा में जाने की तैयारी कर ली थी। वे बदनावर विधानसभा से निर्दलीय चुनाव लड़े थे। केवल छह हजार वोट मिले थे। कांग्रेस के भीतर भाजपा मे जाने की इच्छा रखने वाले नेताओं के चेहरे सामने आने के बाद अगले कुछ दिनों में बड़े दलबदल से इंकार नहीं किया जा सकता है। संभव है कि भाजपा ने ही इस बात को हवा दी हो कि कमलनाथ दलबदल कर रहे हैं? उद्देश्य ऐसे लोगों की पहचान करना रहा हो,जो भाजपा में आने की इच्छा रखते हैं।

हाथ में कमल से कितना सुरक्षित होगा नकुल का भविष्य ?

धीरे-धीरे कांग्रेस के क्षत्रपों की संख्या घटती जा रही है। मध्य प्रदेश में साढ़े चार दशक से कांग्रेस की राजनीति को अपने इशारे से चलाने वाले कमलनाथ के भाजपा में शामिल होने की खबर आसानी से यकीं करने वाली नहीं थी। लेकिन, कमलनाथ का खुद का रवैया भाजपा विरोध की राजनीति का कभी नहीं रहा। 2018 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस का सत्ता में आना महज संयोग था। इस जीत की दो बड़ी वजह थी। पहली व्यापमं का घोटाला। दूसरी वजह ग्वालियर -चंबल अंचल में चुनाव से ठीक पहले हुई वर्ग संघर्ष की घटना। इस घटना के कारण ग्वालियर-चंबल में कांग्रेस 27 सीटें जीतने में सफल रही थी। इस जीत का श्रेय ज्योतिरादित्य सिंधिया के खाते में चला गया था। पंद्रह साल बाद राज्य की सरकार में हुई कांग्रेस की वापसी का कोई लाभ उसके कार्यकर्ता को नहीं मिला। छह माह बाद ही हुए लोकसभा के चुनाव में कमलनाथ ने सिर्फ अपने पुत्र नकुल नाथ की जीत पर ही फोकस किया। ज्योतिरादित्य सिंधिया की हार में बड़ी वजह कमलनाथ और दिग्विजय सिंह का रवैया भी रहा। कमलनाथ के नेतृत्व वाली कांग्रेस सरकार ने सिंधिया के निर्वाचन क्षेत्र के विकास को अटका रखा गया था। कमलनाथ को भविष्य में कोई चुनाव लडना नहीं है। उनके सामने दो ही लक्ष्य हैं। पहला नकुल नाथ का राजनीतिक भविष्य।दूसरा छिंदवाड़ा पर अपना कब्जा। वैसे ये दोनों लक्ष्य एक -दूसरे के पूरक हैं। नकुल नाथ का भविष्य भाजपा में उसी तरह सुरक्षित रहेगा,जिस तरह। कमलनाथ का कांग्रेस में रहा ? इस बात की नरेंद्र मोदी भी नहीं दे सकते। जब तक मोदी हैं तब तक हो सकता है वे संरक्षण और प्रश्रय दे दें। लेकिन,बाद की सियासत के लिए नकुल नाथ को ही कवायद करना होगी। कांग्रेस में गांधी परिवार की नजदीकी का लाभ जिस तरह कमलनाथ को मिला वैसा लाभ नकुल नाथ को भाजपा मिलना मुश्किल है। कांग्रेस में फिर भी लाभ की संभावनाएं बनी रहतीं हैं। कमलनाथ का असमंजस भी इसी कारण हो सकता है।


कमलनाथ ने नहीं की शिवराज सरकार के घोटालों की जांच


कमलनाथ और नकुल नाथ की वह तस्वीर कांग्रेस की राजनीति में बड़े उठा पटक का कारण बनी थी, जिसमें वे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के साथ नजर आ रहे थे। यह तस्वीर 2019 के लोकसभा चुनाव के बाद की थी। कमलनाथ अपने नव निर्वाचित सांसद बेटे को प्रधानमंत्री से मिलाने ले गए थे। इस तस्वीर के सामने आने के कुछ दिन बाद ही सिंधिया अपने समर्थकों के साथ भाजपा में शामिल हो गए। कमलनाथ की सरकार गिर गई। शिवराज सिंह चौहान चौथी बार राज्य के मुख्यमंत्री बन गए। आज भी कांग्रेस के नेता इस बात को मानते हैं कि कमलनाथ का रवैया शिवराज सिंह चौहान और भारतीय जनता पार्टी के नेताओं को लेकर उदार रहा था। कमलनाथ ने शिवराज सिंह चौहान की सरकार से जुड़े किसी भी घोटाले की जांच नहीं कराई। व्यापमं घोटाले के उन मामलों को भी नहीं देखा जिन्हें हाईकोर्ट के आदेश के बाद भी सीबीआई जांच से बचाकर रखा गया था।


नारायण त्रिपाठी और शरद कौल से नहीं लिया था इस्तीफा


कमलनाथ सरकार की एक ओर तस्वीर काफी चर्चा में रही। यह तस्वीर भाजपा विधायक शरद कौल और नारायण त्रिपाठी की थी। कमलनाथ के एक ओर शरद कोल और दूसरी ओर नारायण त्रिपाठी बैठे थे। इस दिन कमलनाथ चाहते तो इन दोनों विधायकों से इस्तीफा कराकर अपनी सरकार को मजबूत कर सकते थे। लेकिन उन्होंने दोनों को खुला छोड़ दिया। इससे भाजपा सतर्क हो गई और उसने कमलनाथ की सरकार गिराने की रणनीति पर काम शुरू कर दिया। कमलनाथ की सरकार जब गिरी तब उन्होंने इसे बचाने की कोशिश भी नहीं की। उन्हें खबर ही नहीं हुई कि सिंधिया और उनके समर्थक विधायक सरकार छोड़कर जा रहे हैं। पूरे घटनाक्रम में कई बार महसूस किया गया कि कमलनाथ अपनी सरकार बचाना ही नहीं चाहते थे। जो नारायण त्रिपाठी कमलनाथ की सरकार बचाने आए थे उन्हें भाजपा से नाता तोड़ना पड़ा।


लोकसभा चुनाव से पहले हुई थी आयकर विभाग की सर्च


2019 के लोकसभा चुनाव के दौरान अप्रैल में आयकर विभाग ने कमलनाथ के करीबियों पर सर्च की कार्यवाही की थी। इस कार्यवाही में 14 करोड़ रुपए से ज्यादा नगदी बरामद हुई थी। छापे की कार्यवाही कमलनाथ के राजदार आरके मिगलानी पर भी हुई थी। जांच में यह बात सामने आई थी कि लोकसभा चुनाव लड रहे कुछ उम्मीदवारों को हवाला के जरिए पैसा पहुंचाया गया था। कांग्रेस मुख्यालय को 106 करोड़ रुपए भेजने की बात सीबीडीटी की रिपोर्ट में कही गई थी। इस रिपोर्ट के आधार पर ही राज्य के चार आला पुलिस अधिकारियों पर कार्रवाई के निर्देश चुनाव आयोग ने मध्यप्रदेश सरकार को दिए थे। ये अधिकारी संजय माने, सुशोभन बनर्जी,बी.मधुकुमार बाबू और अरुण मिश्रा हैं। सरकार ने इन सभी अधिकारियों के खिलाफ विभागीय जांच के आदेश दिए थे।


न्यूक्लियर डील की जानकारी लीक करने का आरोप


प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष जीतू पटवारी शनिवार की शाम तक यह दावा करते रहे की इंदिरा गांधी का तीसरा बेटा कमलनाथ कभी भारतीय जनता पार्टी में शामिल नहीं हो सकता। इंदिरा गांधी के इसी तीसरे बेटे पर पिछले साल जुलाई में भारतीय जनता पार्टी ने न्यूक्लियर डील की गोपनीय जानकारी लीक करने का आरोपी लगाया था। बताया जाता है कि कमलनाथ अपने संपर्कों के जरिए अब तक कानूनी कार्रवाई से बचते रहे हैं। माना जा रहा है कि कमलनाथ ने इन मामलों में होने वाली कार्रवाई से बचने के लिए ही भाजपा में शामिल होने का कदम उठाया है।


राहुल गांधी से हैं कमलनाथ के मतभेद


कमलनाथ ने कांग्रेस में रहते हुए गांधी परिवार से अपनी नजदीकी का भरपूर फायदा उठाया। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर कमलनाथ को महत्व भी इंदिरा गांधी के कथित तीसरे बेटे के कारण ही मिलता रहा।वे कांग्रेस की हर सरकार में मंत्री रहे हैं। कमलनाथ की दोस्ती संजय गांधी से रही थी। वे आज भी अपने कक्ष में संजय गांधी की फोटो लगाते हैं। मध्य प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह इस बात का यकीन ही नहीं कर पा रहे हैं कि कमलनाथ कांग्रेस छोड़कर भारतीय जनता पार्टी में जा रहे हैं । वे कहते हैं कि कमलनाथ संघर्ष के समय इंदिरा गांधी का पूरा साथ दिया था। 2019 के लोकसभा चुनाव के बाद से ही राहुल गांधी और कमलनाथ के बीच मतभेद सामने आने लगे थे। पार्टी की हार के बाद राहुल गांधी चाहते थे कि सभी प्रदेश अध्यक्ष और मुख्यमंत्री नैतिक आधार पर अपने अपने पद छोड़ दें। कमलनाथ के पास दोनों पद थे। लेकिन उन्होंने कोई पद नहीं छोड़ा। जबकि राहुल गांधी ने कांग्रेस अध्यक्ष के पद से इस्तीफा दे दिया था। राजस्थान में अशोक गहलोत ने भी बहुत नहीं मानी थी। वे लगातार नेतृत्व की बात को अनसुना कर पद पर बने रहे।


अस्सी के दशक से मध्यप्रदेश में सक्रिय हैं कमलनाथ


कमलनाथ में 80 के दशक में जब मध्यप्रदेश में अपनी चुनावी राजनीति की शुरुआत की थी तब यह राज्य कांग्रेस का सबसे मजबूत गढ़ था। अब जब वे भाजपा में जा रहे हैं तब कांग्रेस संक्रमण काल में है। अर्जुन सिंह से लेकर दिग्विजय सिंह तक यदि राज्य के मुख्यमंत्री बन पाए तो इसके पीछे कमलनाथ की भूमिका रही। कमलनाथ ने खुद एक बार दिग्विजय सिंह को हटा कर मुख्यमंत्री बनने की थी लेकिन,सफल नहीं हो पाए थे। राज्य में पंद्रह बर्ष तक कांग्रेस को सत्ता का वनवास मिला तो इसके पीछे कमलनाथ और दिग्विजय सिंह का रवैया भी जिम्मेदार रहा। दिग्विजय सिंह ने दस साल तक कोई भी पद न लेने की कसम खाई थी। 2013 तक कांग्रेस की राजनीति में उनकी भूमिका कांग्रेस के लिए नकरात्मक रही। 2008 का चुनाव सुरेश पचौरी के नेतृत्व में लड़ा गया था। 2013 में कांतिलाल भूरिया अध्यक्ष थे और ज्योतिरादित्य सिंधिया प्रचार का प्रमुख थे। कमलनाथ और दिग्विजय सिंह दोनों ने ही सक्रिय रूप से प्रचार में हिस्सेदारी नहीं की। दोनों नेताओं की राज्य की राजनीति में दिलचस्पी 2014 में केंद्र में नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली भाजपा की सरकार आने के बाद जागी। 2018 में कांग्रेस की सत्ता में वापसी नेताओं की एकजुटता और सक्रियता का नतीजा थी।


लोकसभा चुनाव में भाजपा को मिलेगा वाकओवर


मध्यप्रदेश दो दलीय व्यवस्था वाला राज्य है। विधानसभा चुनाव में उसे 40 प्रतिशत वोट मिले हैं । उसने 2018 के विधानसभा चुनाव में 41 प्रतिशत से भी कम वोट में सत्ता में वापसी की थी। यह स्थिति तब है जब ज्योतिरादित्य सिंधिया जैसे चेहरे भारतीय जनता पार्टी में शामिल हो गए थे। कमलनाथ के कांग्रेस में जाने के बाद लोकसभा चुनाव में जरूर कांग्रेस के वोटो में बड़ा परिवर्तन देखने को मिल सकता है। पिछले लोकसभा चुनाव में कांग्रेस को पैंतीस प्रतिशत से भी कम वोट मिले थे। 29 में से 28 विधानसभा सीट भारतीय जनता पार्टी ने जीतीं थीं। इस बार भाजपा सभी 29 सीटों को जीतने का लक्ष्य लेकर चल रही है। कमलनाथ की गढ़ छिंदवाड़ा को जीतने के लिए किए गए उसके तमाम प्रयास असफल रहे हैं। यही कारण है भाजपा ने कमलनाथ के गढ़ को कमलनाथ के जरिए ही जीतने की योजना बनाई है। कांग्रेस के पास छिंदवाड़ा में कोई विकल्प भी नहीं है।