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वाराणसी को मोदी का 2,413 करोड़ का तोहफा, पहले नेशनल वॉटरवे का लोकार्पण

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी सोमवार को अपने संसदीय निर्वाचन क्षेत्र वाराणसी पहुंचे। जहां काशी को 2,413 करोड़ रुपये की परियोजनाओं की सौगात देंगे। इस दौरान पीएम अज़ानगढ़ लिंक रोड और बनारस शहर से बाबतपुर हवाई अड्डे को जाने वाले चार लेन हाइवे का भी उद्घाटन करेंगे। पीएम आज वाराणसी से पश्चिम बंगाल के हल्दिया के बीच जल परिवहन की भी शुरूआत करेंगे। पीएम मोदी इसी जल मार्ग से कोलकाता से चले भारत के पहले कंटेनर वेसल को रिसीव भी केरेंगे। इस मौके पर उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ व केंद्रीय मंत्री नितिन गडकरी व सत्यपाल सिंह भी मौजूद रहेंगे। इसके बाद पीएम मोदी एक जनसभा को भी संबोधित करेंगे, जहां समारोह में उप मुख्यमंत्री केशव प्रसाद मौर्य, मंत्री सुरेश कुमार खन्ना, अनिल राजभर तथा नीलकंठ तिवारी भी शामिल होंगे।

वॉटर-वे चार राज्यों से होकर जाएगा

नेशनल वॉटरवे-1 चार राज्यों उत्तरप्रदेश, बिहार, झारखंड और पश्चिम बंगाल से गुजरेगा। इससे कोलकता, पटना, हावड़ा, इलाहाबाद, वाराणसी जैसे शहर जलमार्ग से जुड़ेंगे। वॉटरवे-1 पर चार मल्टी मॉडल टर्मिनल- वाराणसी, साहिबगंज, गाजीपुर और हल्दिया बनाए गए हैं। जल मार्ग पर 1500 से 2000 मीट्रिक टन क्षमता वाले जहाजों को चलाने के लिए कैपिटल ड्रेजिंग के जरिए 45 मीटर चौड़ा गंगा चैनल तैयार किया गया है। पहला वॉटरवे तैयार करने का जिम्मा इनलैंड वॉटरवेज अथॉरिटी ऑफ इंडिया (आईडब्ल्यूएआई) को सौंपा गया।

इस पूरे कार्यक्रम की जानकारी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने दो दिन पहले ट्वीट कर दी थी। जिसमें बाबतपुर एयरपोर्ट हाइवे और बंदरगाह की फोटो शेयर की गई है।

मुख्यमंत्री पद की लड़ाई कहीं मध्यप्रदेश में सत्ता से चूक न जाए कांग्रेस

मध्यप्रदेश में मुख्यमंत्री के पद को लेकर चल रही खींचतान कांग्रेस कहीं सत्ता में आने से चूक न जाए। कांग्रेस में उठ रहीं इस तरह की आशंकाओं को भारतीय जनता पार्टी के नेता लगातार हवा दे रहे हैं। भारतीय जनता पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह भी अपने मध्यप्रदेश के दौरे में लगातार चेहरे को लेकर हवा दे रहे हैं। कांग्रेस के लिए यह चुनाव करो या मरो का चुनाव है। इस चुनाव कांग्रेस यदि सत्ता बनाने से चूक गई तो स्थितियां उत्तरप्रदेश और बिहार जैसी हो जाएंगीं।

पंद्रह साल की भाजपा सरकार से नाराज है वोटर

राज्य में कांग्रेस अब तक चुनाव कोई ऐसा मुद्दा तैयार नहीं कर पाई है, जिसके नारे के सहारे उसका सत्ता से वनवास समाप्त हो जाए। लगातार पंद्रह साल से विपक्ष में बैठी कांग्रेस जमीनी स्तर पर अपनी पकड़ कमजोर कर चुकी है। पिछले दो विधानसभा चुनाव में नेतृत्व को लेकर जो प्रयोग कांग्रेस पार्टी द्वारा किए गए थे, वे असफल साबित हुए हैं। वर्ष 2008 में पार्टी ने सुरेश पचौरी के नेतृत्व में चुनाव लड़ा था। इस चुनाव में कांग्रेस की सत्ता में वापसी की सबसे ज्यादा संभावनाएं थीं। पांच साल की अवधि में शिवराज सिंह चौहान भारतीय जनता पार्टी के तीसरे मुख्यमंत्री थे। पार्टी में चौहान का नेतृत्व स्वीकार करने वाले लोगों की भी कमी थी।

कांग्रेस की रणनीतिक कमजोरी ने उसे सत्ता से वंचित कर दिया था। वर्ष 2013 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस ने कांतिलाल भूरिया के जरिए आदिवासी कार्ड खेल था। पार्टी को इस कार्ड से आदिवासी क्षेत्रों में ही सफलता नहीं मिली। पिछले विधानसभा चुनाव में भी पार्टी के बड़े नेताओं के बीच निपटाओ का भाव उसी तरह देखने को मिला था, जिस तरह वर्ष 2003 के विधानसभा चुनाव में मिला था। लोकसभा चुनाव में केन्द्र की सरकार जाने के बाद अरूण यादव को प्रदेश कांग्रेस का नेतृत्व सौंपा गया था। तीन साल से भी अधिक समय तक अध्यक्ष रहने के बाद भी वे अपना और पार्टी का जनाधार मजबूत नहीं कर पाए थे। पार्टी ने उन्हें हटाए जाने के फैसले में भी काफी देरी कर दी थी। उनके स्थान पर अध्यक्ष बनाए गए कमलनाथ राज्य की राजनीति के तौर-तरीके से भी परिचित नहीं है।

उनके व्यवहार को लेकर कांग्रेस के कार्यकर्त्ताओं की यह शिकायत हमेशा रहते है कि वे इस तरह पेश आते हैं जैसे कि केन्द्रीय मंत्री अथवा मुख्यमंत्री हैं। कमलनाथ ने राज्य में अपनी भूमिका को किंग मेकर की तरह पेश किया था। पहली बार वे किंग बनने के लिए उतावले दिखाई दे रहे हैं। सत्तर की उम्र पार कर चुके कमलनाथ का राज्य की राजनीति में नोसिखियापन कई मौकों पर देखने को मिला। मीडिया विभाग में परिवर्तन से लेकर उनके चुनावी मुद्दे तक में इस नौसिखिएपन को समझा जा सकता है। कमलनाथ छिंदवाड़ा के विकास मॉडल से राज्य की पंद्रह साल पुरानी भाजपा सरकार को उखाडना चाहते हैं। छिंदवाड़ा के विकास मॉडल को उभारने के पीछे उनकी सोच पार्टी में मुख्यमंत्री पद के दावेदार दूसरे नेताओं को पीछे करने की है।

कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी की सार्वजनिक मंचों से दी गई नसीहतों के बाद भी कमलनाथ, ज्योतिरादित्य सिंधिया से तालमेल नहीं बैठा पा रहे हैं। राहुल गांधी ने मध्यप्रदेश में चुनाव जीतने की जो रणनीति बनाई है उसमें सिर्फ दो ही चेहरों को केन्द्र में रखा गया है। कमलनाथ और ज्योतिरादित्य सिंधिया। राज्य में भारतीय जनता पार्टी की पंद्रह साल की सरकार को लेकर लोगों में नाराजगी साफ दिखाई दे रही है। कांग्रेस इस नाराजगी को अपने पक्ष में मोड़ने का कोई रास्ता हीं ढूंढ पाई है।

सपाक्स और जयस भी बन सकते हैं राह में रोड़ा

कांग्रेस की राह में बड़ी रूकावट सपाक्स और जयस उभर कर सामने आ रही है। दोनों ही वर्ग विशेष की राजनीति कर रहे हैं। सपाक्स संगठन विशेष रूप से ठाकुर, ब्राह्मण एवं वैश्य वर्ग के वोटों की राजनीति कर रहा है। जबकि जयस संगठन आदिवासी वर्ग पर आधारित है। वैसे तो आदिवासी कांग्रेस का प्रतिबद्ध वोटर माना जाता है लेकिन , पिछले दो चुनावों से इसकी कांग्रेस से दूरी साफ दिखाई दे रही है। इस दूरी के अलग-अलग क्षेत्रों में अलग-अलग कारण हैं। गोंडवाना गणतंत्र पार्टी जबलपुर संभाग की कुछ विधानसभा सीटों तक प्रभाव रखती है। इससे मिलने वाले कांग्रेस को नुकसान पहुंचाने के लिए पर्याप्त माने जाते हैं।

जयस चुनाव मैदान में कहां और कितने उम्मीदवार उतारता है यह अभी कहना मुश्किल है। सपाक्स जरूर यह दावा कर रहा है कि वह राज्य की सभी 230 सीटों पर उम्मीदवार उतारेगा। स्वभाविक है कि अनुसूचित जाति, जनजाति वर्ग के लिए आरक्षित सीटें भी इसमें शामिल हैं। इन आरक्षित सीटों पर संबंधित वर्ग के ही लोगों को उम्मीदवार बनाना होगा। ऐसा होने पर सपाक्स के मूल उद्देश्य पर ही स्वभाविक तौर पर सवाल खड़े हांगे। सपाक्स का जन्म आरक्षण विरोध से हुआ है। सामान्य वर्ग के वोटर के बारे में यह माना जाता है कि वह भाजपा का प्रतिबद्ध वोटर है।

सपाक्स के मैदान में होने से नुकसान भाजपा को होगा ऐसा माना जाना स्वभाविक है। यह वोटर भी चुनाव के वक्त विभाजित होगा। इसका फायदा कितना कांग्रेस को मिलेगा यह कहना मुश्किल है। कांग्रेस वर्तमान राजनीतिक हालात अपने अनुकूल मान रही है। यही वजह है कि पार्टी में अभी से नेता एक-दूसरे के समर्थकों के टिकट कटवाने में लगे हुए हैं। कहा यह जा रहा है कि कांग्रेस के सारे नेता मिलकर सिंधिया की राह को रोकना चाहते हैं। राज्य में एक मात्र सिंधिया का चेहरा ही ऐसा है,जिस पर कोई दाग नहीं है। वोटर के बीच भी लोकप्रिय है।

नाव पर सवार होकर आ रहीं अंबे कांग्रेस की नाव पार लगाएगीं या हाथी पर जाने से होगा नुकसान

इस वर्ष की शारदीय नवरात्रि पर मां अंबे का आगमन नाव पर हो रहा है। नाव पर सवार मां अंबे मध्यप्रदेश सहित चार राज्यों में क्या कांग्रेस का सत्ता से वनवास समाप्त कर देगीं या फिर हाथी की उपेक्षा महंगी पड़ जाएगी। मां जगदंबा की वापसी भी इस बार हाथी पर बैठ कर हो रही है। मां अंबे का नाव पर आगमन पूरे देश के लिए अच्छे दिन आने का संकेत देने वाला है। क्या ये अच्छे दिन कांग्रेस की हिन्दी भाषी तीन राज्य मध्यप्रदेश,छत्तीसगढ़ और राजस्थान में सरकार में वापसी से आएंगे? कांग्रेस को इस सवाल का जवाब अपनी भक्ति के जरिए वोटर को खुश करके मिल सकता है। कांग्रेस को इन तीन राज्यों में अपने हाथ के कमाल पर ही भरोसा है। कांग्रेस ने अपनी नाव किनारे लगाने के लिए न तो साइकल की सवारी की है और न ही हाथी पर बैठने की हिम्मत दिखाई है।

मायावती और अखिलेश यादव को कांग्रेस ने किया है निराश

वैसे तो पिछले पांच विधानसभा चुनाव के लिए वोट डाले जाने का काम शारदीय नवरात्रि के बाद ही होता है। चुनाव लड़ने वाले उम्मीदवार इस मौके का उपयोग अपने चुनाव प्रचार के लिए करते हैं। इस वार की नवरात्रि पर जगदंबा नाव पर सवार होकर आ रहीं हैं। इस कारण राजनीतिक दलों के लिए यह नवरात्रि ज्यादा खास हैं। चुनाव वाले तीनों हिन्दी भाषी राज्यों में कांग्रेस और भाजपा के बीच सीधा मुकाबला होना तय माना जा रहा है। छत्तीसगढ़ में अजीत जोगी और मायावती मिलकर मुकाबला त्रिकोणीय बनाने का पूरा प्रयत्न कर रहे हैं। मायावती को अजीत जोगी का साथ कांग्रेस द्वारा हाथ आगे न बढ़ाए जाने के कारण लेना पड़ा है।

मायावती इस उम्मीद में थीं कि राष्ट्रीय स्तर पर कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी जो महागठबंधन तैयार करना चाहते हैं,वह तीन राज्यों के विधानसभा चुनाव में बसपा को साथ लिए बगैर नहीं बन सकता। मायावती इंतजार करतीं रहीं,कांग्रेस ने उनके प्रस्ताव को स्वीकार ही नहीं किया। प्रदेश कांग्रेस कमेटी के अध्यक्ष कमलनाथ कहते हैं कि मायावती वो सीटें चाहतीं थीं, जिन पर उन्हें हजार-दो हजार वोट ही पिछले चुनाव में मिले थे। दरअसल मायावती कांग्रेस के वोट के जरिए अपनी नाव पार लगाना चाहतीं थीं। कांग्रेस को लग रहा था कि इस गठबंधन से सत्ता मिल भी गई तो उसका रिमोट मायावती के हाथ में चला जाएगा।

अखिलेश यादव की उम्मीद भरी निगाहों को कांग्रेस ने अनदेखा कर दिया। अखिलेश यादव से कांग्रेस ने समझौते के संकेत तो दिए लेकिन, सहमति का जवाब नहीं भेजा। नतीजा समाजवादी पार्टी को अपनी नाव को बचाने के लिए अकेले ही चुनाव का चप्पू चलाना पड़ रहा है।

कांग्रेस को उम्मीद कि आरक्षित वर्ग और मुस्लिम के साथ लगेगी नाव पार

बसपा प्रमुख मायावती के हाथी को नाराज करने के बाद यह माना जा रहा है कि इससे कांग्रेस को नुकसान होगा। कांग्रेस एक बार फिर सत्ता में आने से चूक सकती है। इस तरह की अटकलों का आधार बसपा के प्रतिवद्ध वोट बैंक के कारण लगाया जा रहा है। राज्य में बसपा की ताकत निरंतर कम हो रही है। बसपा को पिछले चुनाव में सिर्फ चार सीटें ही मिलीं थीं। जबकि वह नौ सीटों पर दूसरे नंबर की पार्टी बनी थी। बसपा जिन सीटों पर नबंर दो पर रही थी ये श्योपुर,सुमावलीमुरैना,भिंड,महाराजपुर,पन्ना,रामपुर बघेलान,सेमरियादेबतालाव तथा रीवा विधानसभा सीट हैं।

पहले उत्तरप्रदेश के चुनाव फिर एट्रोसिटी एक्ट का सवर्णों द्वारा किए जा रहे विरोध के बाद कांग्रेस इस नतीजे पर पहुंची है कि अनुसूचित जाति वर्ग मायावती का साथ छोड़ रहा है। कांग्रेस का अनुमान है कि यह वर्ग भाजपा से नाराज है। इस कारण वह ऐसे दल को वोट देना चाहेगा जो सरकार बना सकता है। तीनों हिन्दी भाषी राज्यों में बसपा अकेले अपने दम पर सरकार बनाने की स्थिति में नहीं है।

राजस्थान में कांग्रेस को लग रहा है कि हर पांच साल में होने वाले सत्ता परिवर्तन में वोटर इस बार भाजपा को विपक्ष में बैठाएंगे। जबकि छत्तीसगढ़ में माया-जोगी के गठबंधन को अनुसूचित जाति-जनजाति वर्ग के वोटर अभी विश्वास करने की स्थिति में नहीं है। वहीं सपा की स्थिति तीनों ही राज्यों में सिर्फ सांकेतिक ही मानी जा रही है। कांग्रेस में यह डर भी देखने को मिल रहा है कि कहीं हाथी सत्ता आने के सपने को कुचल न दे?

मध्यप्रदेश में बसपा उम्मीदवारों की पहली सूची: कांग्रेस की महागठबंधन बनाने की कोशिशों को मायावती का झटका

mayavati, bsp

कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी द्वारा भाजपा के खिलाफ महागठबंधन बनाने की कोशिशों को बसपा प्रमुख मायावती ने जबरदस्त झटका दिया है। मायावती ने मध्यप्रदेश के विधानसभा चुनाव के लिए अपने 22 उम्मीदवारों की पहली सूची जारी की है। इस सूची में चार में से तीन मौजूदा विधायकों के नाम हैं। बसपा की पहली सूची जारी होने के बाद यह माना जा रहा है कि मध्यप्रदेश में कांग्रेस से गठबंधन की संभावनाएं खत्म हो गईं हैं। वहीं मायावती ने छत्तीसगढ़ में अजित जोगी की पार्टी के साथ गठबंधन करने की घोषणा कर दी है। वहां भी कांग्रेस से समझौता नहीं किया है।

अजित जोगी ने नब्बे में से 35 सीटें मायावती के लिए छोड़ दी हैं। मध्य प्रदेश कांग्रेस कमेटी के अध्यक्ष कमलनाथ, बसपा से समझौता करने के संकेत लगातार दे रहे थे। बसपा के बाद अब निगाह समाजवादी पार्टी पर टिकी हुईं हैं। राज्य की उत्तरप्रदेश से लगी हुए विधानसभा क्षेत्रों में बसपा और सपा का असर है।

मायावती की शर्तों पर समझौते के लिए तैयार नहीं हुई कांग्रेस

मध्यप्रदेश में कांग्रेस समझौते में शामिल होने वाले दलों के लिए सिर्फ तीस सीटें देने को तैयार थी। राज्य में विधानसभा की कुल 230 सीटें हैं। कांग्रेस तीन दलों से गठबंधन की बात कर रही थी। बसपा एवं सपा के अलावा गोड़वाना गणतंत्र पार्टी से भी समझौते की बात चल रही थी।

कांग्रेस इन तीनों दलों को उसकी क्षमता के आधार पर सीटें छोड़ने को तैयार थी। मायावती अकेले अपने लिए पचास से अधिक सीटें मांग रहीं थीं। अखिलेश यादव और गोंडवाना गंणतंत्र पार्टी की मांग भी इतनी ही सीटों की थी। कांग्रेस सौ सीटें समझौते में देकर यह संदेश नहीं देना चाहती कि राज्य में उसकी स्थिति अकेले सरकार बनाने की नहीं है। राज्य में इन दिनों एट्रोसिटी एक्ट के खिलाफ सवर्ण सड़कों पर उतरकर आंदोलन कर रहा है।

सवर्णों की नाराजगी से भाजपा को नुकसान होने की संभावना ज्यादा प्रकट की जा रही है। लेकिन, इस बात पर अभी भी संदेह है कि सवर्णों का वोट कांग्रेस के पक्ष में जाएगा। राज्य में कोई ऐसा तीसरा दल नहीं है जो अपने दम पर सरकार बनाने की स्थिति में हो। कांग्रेस के रणनीतिकारों का यह भी मानना रहा है कि मौजूदा हालात में बसपा से समझौता न करने से ही सवर्ण मतदाता कांग्रेस के पक्ष में आ सकता है। राज्य में अनुसूचित जाति वर्ग के लिए आरक्षित कुल सीटों की संख्या 35 है। इनमें से सिर्फ चार सीटें कांग्रेस के पास हैं। भाजपा के पास 28 सीटें हैं। इन सीटों पर सवर्ण कांग्रेस और बसपा में से जिस भी दल के पक्ष में मतदान करेंगे,उसे लाभ हो सकता है। संभावना यह भी प्रकट की जा रही है कि राज्य में अनुसूचित जाति वर्ग का मतदाता इस बार भाजपा को हराने के लिए वोट करेंगे। ऐसी स्थिति में वह बसपा के बजाए कांग्रेस के पक्ष में जा सकता है। राज्य में बसपा का वोट शेयर सात प्रतिशत से अधिक है। पिछले दो चुनाव का ट्रेंड बसपा के घटते जनाधार की ओर इशारा करता है।

बीएसपी द्वारा घोषित की गई 22 उम्मीदवारों की सूचि

22 उम्मीदवारों की सूचि

ओबीसी की जनगणना के अलग आकंडे: आबादी के अनुसार भागीदारी का सवाल

आजादी के लगभग 90 साल बाद प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व वाली एनडीए सरकार ने वर्ष 2021 की जनगणना में ओबीसी के अलग आकंडे जुटाने का निर्णय लिया है। जनगणना में अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) आकंडे जारी करने की मांग लंबे समय से उठती रही है। पिछड़ा वर्ग आयोग को संवैधानिक दर्जा देने की एक अन्य मांग को प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी पहले ही पूरा कर चुके हैं। विवाद में पिछड़ों में अति पिछड़े छांटने को लेकर है।

पिछड़ों की राजनीति का इतिहास है काफी लंबा

केंद्र सरकार ने ओबीसी के सब- कैटेगराइज़ेशन के लिए 2 अक्टूबर 2017 को एक आयोग का गठन किया है। यह आयोग तय करेगा कि ओबीसी में शामिल जातियों को क्या आनुपातिक आधार पर प्रतिनिधित्व दिया जा सकता है। आयोग तय करेगा कि ऐसी कौन सी जातियां हैं जिन्हें ओबीसी में शामिल होने के बाद भी आरक्षण का पूरा लाभ नहीं मिला और ऐसी कौन सी जातियां हैं जो आरक्षण की मलाई खा रही हैं। चार सदस्यीय इस आयोग की अध्यक्ष दिल्ली हाईकोर्ट की पूर्व मुख्य न्यायाधीश जी. रोहिणी हैं। देश में पिछड़ों की राजनीति का इतिहास काफी लंबा है।

ताजा घटनाक्रम जून माह में कांग्रेस द्वारा दिल्ली के ताल कटोरा मैदान में आयोजित किए गए पिछड़ा वर्ग सम्मेलन का है। इस सम्मेलन में कांग्रस अध्यक्ष राहुल गांधी ने कहा कि इस वर्ग में स्किल की कोई कमी नहीं है, उनमें हुनर भरा हुआ है। प्रधानमंत्री कहते हैं कि यहां कौशल की कमी है, ये झूठ है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने इसका जवाब पिछड़ा वर्ग आयोग को संवैधानिक दर्जा देकर दिया। आयोग का संवैधानिक दर्जा न होने के कारण उसकी अनुशंसाओं को सरकार अनदेखा कर देती थी।

राजनैतिक दलों में जाति कार्ड को लेकर होती है राजनीति

कांग्रेस पर ब्राह्मण-ठाकुरों की राजनीति करने का आरोप हमेशा ही लगता रहा है। कांग्रेस की इस राजनीति का लाभ भारतीय जनता पार्टी ने उठाया। पार्टी ने पहले कल्याण सिंह और उमा भारती जैसे लोधी नेताओं के जरिए उत्तरप्रदेश और मध्यप्रदेश की राजनीति में अपना वर्चस्व बढ़ाने का प्रयास किया। मौजूदा समय में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी खुद को भी ओबीसी से ही जोड़ते हैं। लगातार तेरह साल से मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान भी ओबीसी से ही हैँ। लोधी कार्ड के बाद भाजपा ने यादव कार्ड का भी उपयोग किया। बाबूलाल गौर को मध्यप्रदेश का मुख्यमंत्री बनाया गया। यादव राजनीति में मुलायम सिंह और मुलायम सिंह की अच्छी पकड़ मानी जाती है। सपा का नेतृत्व अखिलेश यादव के हाथों में आने के बाद यादवों में राजनीतिक बंटवारे की संभावना बढ़ गई है। पिछड़ा वर्ग की आबादी सबसे ज्यादा करीब 52 फीसदी है। ऐसे में इस वर्ग के सहारे राजनीति में आगे बढ़ने की हसरत हर दल की है। यद्यपि ओबीसी की आबादी को लेकर विवाद की स्थिति है।

मंडल आयोग की रिपोर्ट के मुताबिक 1980 में भारत में ओबीसी की 52 फीसदी आबादी थी। यह रिपोर्ट 1931 की जनगणना पर आधारित थी। इसके बाद जातीय जनगणना के आंकड़े नहीं आए। जबकि एनएसएसओ (नेशनल सैंपल सर्वे आर्गेनाइजेशन) ने 2006 में ओबीसी की जनसंख्या 41 और 2011-12 में 44 फीसदी बताई है। आबादी की तुलना में सरकारी क्षेत्र में ओबीसी की भागीदारी बेहद कम है। भारत सरकार के कार्मिक मंत्रालय की एक रिपोर्ट के अनुसार ग्रुप ए में सिर्फ 8.37, बी में 10.01 और सी में ओबीसी का प्रतिनिधित्व 17.98 फीसदी ही है। दूसरी और एनएसएसओ (2011-12) की रिपोर्ट में बताया गया है कि ओबीसी के 36.6 फीसदी लोग खेती करते हैं।

ओबीसी को अलग-अलग श्रेणियों में बांटकर भाजपा करती है राजनीति

ओबीसी की आबादी अधिक होने के कारण लगभग सभी राजनीतिक दल उन्हें लुभाने की कोशिश करते रहते हैँ। दलितों की राजनीति करने वाली बसपा के लिए भी कुशवाह वोट महत्वपूर्ण हो जाते हैं। यादवों और कुर्मियों के बाद ओबीसी में तीसरी प्रभावी जाति कुशवाह, मौर्य, शाक्य, सैनी आदि मानी जाती है। कुशवाह वोट बीएसपी को मिलते भी रहे हैं, लेकिन कुशवाह एवं अन्य ओबीसी समुदाय पर ध्यान न देने के चलते बाद में उनका बसपा से मोह भंग हो गया। कुशवाह भाजपा के साथ चले गए। भाजपा ओबीसी को तीन अलग-अलग श्रेणियों में बांटकर अति पिछड़ों को अपने पक्ष में करना चाहती है। हर राज्य में ओबीसी के अपर सेक्शन हैं। उसका झुकाव किसी न किसी पार्टी की तरफ पहले से है। उसे तोड़ पाना किसी भी राजनैतिक दल के लिए मुश्किल होता है। जैसे यूपी में यादव हैं। इसलिए वहां वह बिहार में गैर यादव को , गैर कुर्मी ओबीसी को तोड़ने की कोशिश नई श्रेणियों के जरिए भाजपा कर रही है। ओबीसी की सूची में पांच हजार से अधिक जातियां हैं। 27 प्रतिशत आरक्षण का लाभ पिछड़ा वर्ग के संपन्न लोग पाने में सफल हो जाते हैँ। भाजपा आरक्षण के लाभ वंचित पिछड़े वर्ग की जातियों की बात कर रही है।

परिवारवाद की ओर माया का एक और कदम

उत्तरप्रदेश के चुनाव में सब कुछ लुटाने के बाद बसपा सुप्रीमो मायावती भाजपा विरोधी दलों से हाथ मिलाने के लिए तैयार हो गईं हैं। माया ने भाजपा के खिलाफ अपनी लड़ाई में छोटे भाई आनंद कुमार को भी जोड लिया है। आनंद कुमार को इस शर्त के साथ पार्टी का उपाध्यक्ष बनाया गया है कि वे कभी किसी संवैधानिक पद पर अपना दावा नहीं ठोकेंगे।

आनंद कुमार उपाध्यक्ष बनाने का एलान अंबेडकर जयंती पर आयोजित कार्यक्रम में किया गया। इस मौके पर मायावती ने कहा कि मैंने इस शर्त के साथ आनंद कुमार को महत्वपूर्ण जिम्मेदारी देने का फैसला लिया है कि वह पार्टी में हमेशा नि:स्वार्थ भावना से कार्य करता रहेगा और कभी भी सांसद, विधायक, मंत्री, मुख्यमंत्री आदि नहीं बनेगा। इसी शर्त के आधार पर आज मैं उसे पार्टी का राष्ट्रीय उपाध्यक्ष घोषित कर रही हूं।ह्णह्ण कार्यक्रम में मायावती लिखा हुआ भाषण पढ़ने के आरोपों पर जहां सफाई देती नजर आईं, वहीं ईव्हीएम की गड़बड़ी का मुद्दा भी उन्होंने लोगों के सामने रखा। लिखा भाषण पढ़ने पर मायावती ने कहा कि 1996 में उनके गले का बडा ऑपरेशन हुआ था और पूरी तरह खराब हो चुका एक ह्यग्लैण्डह्ण डाक्टरों ने निकाल दिया था। मौखिक भाषण देने में उंचा बोलना पडता है, लेकिन डाक्टरों ने ऐसा नहीं करने की सलाह दी है। भाजपा पर 2014 के लोकसभा और 2017 के उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में ईवीएम :इलेक्ट्रानिक वोटिंग मशीन: में गडबडी करने का आरोप लगाते हुए उन्होंने कहा, ह्यह्यमैं कदम पीछे खींचने वाली नहीं हूं। हमारी पार्टी भाजपा द्वारा ईवीएम की गडबडी के खिलाफ बराबर संघर्ष करेगी और इसके लिए भाजपा विरोधी दलों से भी हाथ मिलाना पडा तो अब उनके साथ भी हाथ मिलाने में परहेज नहीं है।