सुप्रीम कोर्ट के जजों ने एडल्ट्री कानून को अपराध के दायरे से बाहर कर दिया है। खानविलकर ने कहा बराबरी जरूरी है। स्त्री और पुरुष के बीच में कोई भेदभाव नहीं किया जा सकता है। महिलाओं को पुरुषों की प्रॉपर्टी की तरह नहीं इस्तेमाल किया जा सकता। सुप्रीम कोर्ट ने ये भी कहा कि ऐसा कोई सोशल लाइसेंस नहीं है जिसके जरिए मैरेज इंस्टीट्यूशंस को बर्बाद करे। दूसरी तरफ इस मामले में सरकार का पक्ष अलग था। सरकार का कहना था कि अगर महिलाओं को भी एडल्ट्री के दायरे में रखते हैं तो मैरेज इंस्टीट्यूशंस बर्बाद हो सकता है। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि सेक्शन 497 आरबिटररी है। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि एडल्ट्री अपराध नहीं है। यह तलाक का आधार हो सकता है। अदालत ने सेक्शन 497 को असंवैधानिक घोषित कर दिया है।
150 साल पुराने एडल्ट्री कानून पर सुप्रीम कोर्ट गुरूवार को अपना फैसला सुनाया है। इस मामले पर सुप्रीम कोर्ट की पांच जजों वाली संवैधानिक पीठ ने एडल्ट्री को परिभाषित करने वाली आईपीसी की धारा 497 की वैधता खारिज करने को लेकर दायर की गई याचिका पर 23 अप्रैल 2018 को मामले की सुनवाई होने के बाद फैसला सुरक्षित रख लिया था। इस मामले में केंद्र सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में इस बात को माना था कि एडल्ट्री एक अपराध है और इसकी वजह से परिवार और विवाह दोनों ही बर्बाद हो रहे हैं। आईपीसी की धारा-497 (एडल्ट्री) के प्रावधान के तहत अभी तक सिर्फ पुरुषों को ही अपराधी माना जाता है जबकि इसमें महिलाओं को पीड़ित माना जाता था।
एडल्ट्री कानून के तहत किसी विवाहित महिला से उसके पति की मर्जी के बिना संबंध बनाने वाले पुरुष को पांच साल की सजा हो सकती है। दरअसल, एडल्ट्री यानी व्यभिचार की परिभाषा तय करने वाली आईपीसी की धारा 497 में सिर्फ पुरुषों के लिए सजा का प्रावधान है। महिलाओं पर कोई कार्रवाई नहीं होती है। इसके चलते इस एडल्ट्री लॉ को खत्म किए जाने के लिए ही सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर की गई है। एडल्ट्री कानून को खत्म किए जाने की याचिका पर सुनवाई के दौरान केंद्र की तरफ से सुप्रीम कोर्ट में इस कानून के बने रहने के पक्ष में दलील दी गई थी। इस पर केंद्र ने सुप्रीम कोर्ट की संवैधानिक पीठ के सामने कहा था कि व्याभिचार अपराध है क्योंकि इससे शादी और घर दोनों ही बर्बाद होते हैं।
क्या था मामला
केरल के जोसफ शाइन की तरफ से दाखिल याचिका में कहा गया है कि 150 साल पुराना यह कानून मौजूदा दौर में बेमतलब है। ये उस समय का कानून है जब महिलाओं की स्थिति बहुत कमजोर थी। इसलिए, व्यभिचार यानी एडल्ट्री के मामलों में उन्हें पीड़ित का दर्जा दे दिया गया। याचिकाकर्ता की दलील थी कि आज औरतें पहले से मजबूत हैं। अगर वो अपनी इच्छा से दूसरे पुरुष से संबंध बनाती हैं, तो मुकदमा सिर्फ उन पुरुषों पर ही नहीं चलना चाहिए। औरत को किसी भी कार्रवाई से छूट दे देना समानता के अधिकार के खिलाफ है।
