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सत्ता विरोधी लहर को रोकने की चुनौती से निकलेगा सत्ता का रास्ता?

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सोनल भारद्वाज

Sonal.kaushal14@gmail.com

sonal Bhardwaj
वोटर का सरकार विरोधी रवैया सिर्फ सिर्फ प्रशासनिक मशीनरी के कारण ही उत्पन्न नहीं होता। इसके लिए सत्ताधारी राजनीतिक दल के नेता और कार्यकर्ताओं का रवैया भी महत्वपूर्ण होता है। किसी दौर में कांग्रेस लगातार राज करती थी। केंद्र में भी राज्य में भी। इसका असर कांग्रेस के कार्यकर्ताओं के आचार-व्यवहार में भी साफ दिखाई देता था। अधिकारियों से मारपीट अथवा अपराधियों को संरक्षण देने के कई मामले इतिहास में दर्ज हैं। भाजपा के कार्यकर्ताओं में भी अब इसी तरह का भाव दिखाई दे रहा है। मध्यप्रदेश के किसी न किसी जिले से यह खबर महीने-दो महीने में सामने आ ही जाती है कि भाजपा कार्यकत्र्ता द्वारा अधिकारी से अशालीन आचरण किया। पार्टी कई मामलों में कार्यवाही करती है और कई मामलों में शिकायत की अनदेखी कर दी जाती है। सरकार विरोधी वोट पार्टी के इस तरह के रवैये से भी तैयार होता हैं। पार्टी की अंदरूनी कलह भी काफी हद तक सत्ता विरोधी रुझान के लिए जिम्मेदार होती है।
सोनल भारद्वाज Sonal.kaushal14@gmail.com

राजस्थान और दक्षिण भारत के कुछ राज्यों को अपवाद स्वरूप छोड़ दिया जाए तो सामान्यतः: हर पांच साल में सत्ताधारी दल बदलने का ट्रेंड कम दिखाई देता है। उत्तर प्रदेश में पहली बार भाजपा को लगातार दूसरी बार सरकार बनाने का मौका वोटर ने दिया। गुजरात भाजपा का सबसे मजबूत किला बन चुका है। मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ में तो भाजपा लगातार पंद्रह साल तक सत्ता में बनी रही है। छत्तीसगढ़ को अलग राज्य बने हुए अभी बाईस साल ही बीते हैं। इन बाईस सालों में छत्तीसगढ़ ने सिर्फ तीन ही मुख्यमंत्री देखे हैं। अजित जोगी राज्य के पहले मुख्यमंत्री थे। उसके बाद वर्ष 2003 के विधानसभा चुनाव में भाजपा को बहुमत मिला। डॉ.रमन सिंह ने सरकार का नेतृत्व करते हुए लगातार दो चुनावों में भाजपा को बहुमत दिलाकर चुनाव में सत्ता विरोधी वोट के मायने ही बदल दिए थे। दो चुनावों में भाजपा ने पॉजिटिव वोट हासिल कर सरकार बनाई। पंद्रह साल लगातार सरकार में रहने की तस्वीर मध्यप्रदेश में भी इसी दौरान उभरी। यहां भी लगातार दो चुनावों में भाजपा को सत्ता विरोधी वोटों का सामना नहीं करना पड़ा था। शिवराज सिंह चौहान के नेतृत्व पर जनता ने पॉजिटिव वोट किया। कांग्रेस को उसकी गुटबाजी से नुकसान हुआ। पहले जब गैर कांग्रेसी सरकार मध्यप्रदेश में आती थी तो वह ढाई साल ही चल पाती थी। अब यह स्थिति कांग्रेस के साथ बन रही है। इससे भाजपा की राजनीतिक ताकत लगातार बढ़ती गई। 2013 के विधानसभा चुनाव में नतीजे वर्ष 2003 के विधानसभा चुनाव की जैसे ही थे। तुलनात्मक तौर पर कुछ सीटें जरूर कम हुईं थीं। लेकिन, 2018 के विधानसभा चुनाव में मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ दोनों ही जगह भाजपा के हाथ से सत्ता निकल गई। राजस्थान का वोटर हर पांच साल में सत्ता बदलने का आदी रहा है।
इन तीनों ही राज्यों में इस साल के अंत में विधानसभा के चुनाव होना है। राजस्थान में हर पांच साल में सत्ता बदलने के ट्रेंड में सत्ता विरोधी लहर ज्यादा तीव्र दिखाई देती है। छत्तीसगढ़ में भाजपा की तरह भूपेश बघेल के नेतृत्व को वोटर एक और मौका देता है कि नहीं यह देखना भी दिलचस्प होगा। लेकिन, लोगों की दिलचस्पी मध्यप्रदेश विधानसभा के चुनाव में ज्यादा दिखाई दे रही है। चुनाव में सत्ता विरोधी लहर होने के कई कारण मध्यप्रदेश में मौजूद हैं। इसके असर को कम करने के लिए पार्टी संगठन पूरे जी जान से जुटा हुआ है। महत्वपूर्ण सवाल यह है कि वोटर में उभर रही सत्ता विरोधी लहर को क्या पोलिंग स्टेशन पर कम किया जा सकता है?
वैसे भी राजनीति में किसी भी बात का पूर्वानुमान लगाना मुश्किल होता है। मध्यप्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह कहा करते थे कि चुनाव मैनेजमेंट से जीते जाते हैं। 1998 के विधानसभा चुनाव में तत्कालीन नेता प्रतिपक्ष विक्रम वर्मा की हार को दिग्विजय सिंह के चुनावी प्रबंधन की सफलता के तौर पर देखा गया था। लेकिन, 2003 के विधानसभा चुनाव में सत्ता विरोधी लहर को दिग्विजय सिंह का कोई भी चुनावी प्रबंधन नहीं रोक पाया था। सड़क,बिजली पानी ने दिग्विजय सिंह की प्रबंध कला पर बंटाधार लेबल चस्पा कर दिया था। विकास पहली बार चुनाव में मुद्दा बना था। उमा भारती में वोटर ने विकास की अपार संभावनाएं देखीं थीं। लेकिन,वे अपने मिजाज को नहीं बदल सकीं। नतीजा शिवराज सिंह चौहान के तौर पर सामने है। शिवराज सिंह चौहान भारतीय जनता पार्टी का चुनाव जिताऊ चेहरा बन चुके हैं।
इंदौर में हुए प्रवासी भारतीय सम्मेलन और इसके बाद आयोजित हुई ग्लोबल इन्वेस्टर्स समिट के जरिए मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने यह स्थापित करने की कोशिश की है कि उनकी सरकार काम करने वाली सरकार है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की उपस्थिति भी महत्वपूर्ण रही है। भाजपा की कोशिश यही है कि चुनाव में वोटर का सरकार विरोधी रवैया नरम पड़े। वोटर का सरकार विरोधी रवैया सिर्फ सिर्फ प्रशासनिक मशीनरी के कारण ही उत्पन्न नहीं होता। इसके लिए सत्ताधारी राजनीतिक दल के नेता और कार्यकर्ताओं का रवैया भी महत्वपूर्ण होता है। किसी दौर में कांग्रेस लगातार राज करती थी। केंद्र में भी राज्य में भी। इसका असर कांग्रेस के कार्यकर्ताओं के आचार-व्यवहार में भी साफ दिखाई देता था। अधिकारियों से मारपीट अथवा अपराधियों को संरक्षण देने के कई मामले इतिहास में दर्ज हैं। भाजपा के कार्यकर्ताओं में भी अब इसी तरह का भाव दिखाई दे रहा है। मध्यप्रदेश के किसी न किसी जिले से यह खबर महीने-दो महीने में सामने आ ही जाती है कि भाजपा कार्यकत्र्ता द्वारा अधिकारी से अशालीन आचरण किया। पार्टी कई मामलों में कार्यवाही करती है और कई मामलों में शिकायत की अनदेखी कर दी जाती है। सरकार विरोधी वोट पार्टी के इस तरह के रवैये से भी तैयार होता हैं। पार्टी की अंदरूनी कलह भी काफी हद तक सत्ता विरोधी रुझान के लिए जिम्मेदार होती है। कांग्रेस पार्टी को बड़ा नुकसान इसी अंदरूनी कलह से होता रहा है। पार्टी के लगातार सत्ता से बाहर रहने के बाद भी नेताओं और कार्यकर्ताओं के बीच कलह कम नहीं होती। प्रदेश कांग्रेस के अध्यक्ष कमलनाथ ने तो एक कार्यक्रम में खुलकर इस बात को स्वीकार भी किया। इसमें कोई बुराई भी नहीं है कि कौन कार्यकर्ता किस नेता के ज्यादा करीब है। लेकिन,जब चुनाव में एक नेता अपनी ही पार्टी के दूसरे नेता का विरोध करता है तो उसे एंटी इनकंबेंसी नाम ही दिया जाता है।
मध्यप्रदेश में भारतीय जनता पार्टी और कांग्रेस दोनों ही राजनीतिक दल चुनावी साल में अपनी अंदरूनी कलह से जूझते लग रहे हैं। होशंगाबाद का ताजा उदाहरण सामने है। भाजपा और कांग्रेस दोनों के ही प्रभारी इस जिले का दौरा कर चुके हैं। दोनों राजनीतिक दलों के प्रभारियों के दौरे के दौरान अंदरूनी कलह को होशंगाबाद के वोटर ने देखा है। भाजपा के प्रभारी मुरलीधर राव को स्वागत तो पार्टी में ही चर्चा का विषय बना हुआ है। जबकि कांग्रेस के प्रभारी जेपी अग्रवाल को स्थानीय नेताओं का रवैया रास नहीं आया। इस तरह की कहानी कई जगह से सामने आ रही है। भाजपा के सामने बड़ी चुनौती सत्ता विरोधी वोटों को कांग्रेस के पक्ष में जाने से रोकना है। कांग्रेस की चुनौती अंदरूनी गुटबाजी से भाजपा को मिलने वाले वोटों को रोकने की है।

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