सूचना
इस आलेख में शामिल पात्र,घटनाक्रम एवं स्थान काल्पनिक हैं। किसी घटना विशेष अथवा व्यक्ति से दुर्भावना रखते हुए यह आलेख तैयार नहीं किया गया है। समानता संयोग से हो सकती है। मैं गीता ही नहीं उन सारे धर्मग्रंथों पर हाथ रखकर यह कथन करता हूं कि आलेख के जरिए मेरा इरादा किसी को भी मानसिक, शारीरिक क्षति पहुंचाना नहीं है। मेरा पूरा भरोसा भारत गणराज्य के लिए स्थापित्य संविधान पर है। मैं संविधान में उल्लेखित हर अधिकार और कर्त्तव्य के प्रति पूरी तरह से सचेत हूं। मैं राज्य के नीति-निर्धारकों के कृत्य पर भी कोई संदेह नहीं रखता हूं। संदेह न होने की वजह संविधान में उल्लेखित तीन महत्वपूर्ण स्तंभ हैं। विधायिका,कार्यपालिका और न्यायपालिका। चूंकि संविधान में चौथे स्तंभ के तौर पर मीडिया का कहीं उल्लेख नहीं मिलता, इस कारण मीडिया की भूमिका को लेकर संदेह अवश्य रहता है। मीडिया को राजनीतिक लाभ का जरिया बना लिया गया है। देश की जनता आज भी यह मानती है कि अखबार में छप गया है तो सरकार के कान तक उसकी बात पहुंच जाएगी। वैसे भी सरकार के कुछ काले से रंग के कामकाज ऐसे होते हैं,जिनकी खबर भी लोगों तक कानों-कान ही पहंुचती है। अखबारें ऐसी खबरें छापकर अपने रंगीन पृष्ठों को काला नहीं करना चाहते हैं। ऐसे ही एक राज्य में सरकार ने काला कारज किया। मध्यदेश नाम का यह राज्य था। कलकल करतीं नदिंयां,ऊंचे-ऊंचे पहाड़। इस राज्य की सुंदरता को बढ़ा देते थे। एक समय इस राज्य की कमान राज सिंह नामक व्यक्ति हाथों में आ गईं। राज सिंह का संबंध राज परिवार से नहीं था। गरीब किसान का बेटा।
मेहनत,मजदूरी कर अपना और अपने परिवार का गुजारा करता था। राज सिंहासन तो बस उसे प्रभु कृपा से ही मिला था। राज्य के वयोवृद्ध राजा का कोइ्र वंशज नहीं था,उन्होंने एक रात तय किया कि सुबह जो भी पहला व्यक्ति मिलेगा,उसे अपना राजपाट सौंपकर वान्यप्रस्थ के लिए चले जाएंगे। राजा का सुबह-सुबह सामना राज सिंह से हो गया। राज सिंह के मन में राज महल को देखने की दबी इच्छा हमेशा ही रहती थी। उस सुबह भी राज सिंह इसी इच्छा से राज महल के पास पहुंचा था कि चौकीदार उसे अंदर जाने की इजाजत दे देंगे तो भला हो जाएगा। प्रभु ने उसकी झोली में पूरा राज्य ही डाल दिया। राज्य मिल जाने के बाद राज सिंह के मन में यह आशंका हमेशा ही बनी रहती थी कि किसी पड़ोसी राज्य के राजा ने आक्रमण कर दिया तो राजपाट छिन जाएगा। राज सिंह के मन ने कहा कि यदि इतने बड़े राज्य में कुछ अपने और परिवार वालों के लिए कमाई का जरिया बना लिया तो किसे खबर होगी? राज सिंह ने अपनी बैलगाड़ी को एक व्यापारी को किराए पर दे दिया।
इसके एवज में व्यापारी को राज्य में पहाड़ की मिट्टी खोदने का ठेका दे दिया गया। ऊंट की चोरी और पहाड़ की खुदाई चोरी से तो नहीं की जा सकती। जल्द ही राज सिंह का राज भी खुला गया। राज सिंह ने अपनी गलती मानी तो प्रजा ने भी माफ कर दिया। कुछ साल तक सभी कुछ ठीकठाक रहा। राज सिंह को राजकाज आता नहीं था। कारिंदों ने पूरी व्यवस्था को धीरे-धीरे अपने हाथ में ले लिया। कारिंदों की लूटपाट से प्रजा त्राही-त्राही करने लगी। लेकिन, राज सिंह जानते हुए अंजान बने रहे। धीरे-धीरे कारिंदों ने राज दरबार में अपने नाते-रिश्तेदारों की नियुक्तियां शुरू कर दीं। राज्य के प्रतिभाशाली नौजवान हताश और निराश हो गए। पड़ोसी राजा को मध्यदेश में हो रहीं गड़बड़ियों की खबर लगी तो उसने तय किया कि राज्य पर आक्रमण करने के बजाए जनता को राज सिंह का सच बताकर सहानुभूति हासिल की जाए। पड़ोसी राजा ने अपने भरोसेमंद लोगों के जरिए राज्य में हो रहीं गडबड़ियों को प्रचारित कराना शुरू कर दिया। कानों-कान होती हुई बात राज सिंह के कान तक भी पहुंच गई। राज महल की चकाचौंध में डूबे राज सिंह को कारिंदों ने आसानी यह समझा दिया कि प्रचार पड़ोसी राजा की ओर से राज्य को बदनाम करने के लिए किया जा रहा। षडयंत्र कर पड़ोसी राजा, राज्य हथियाना चाहता हैं। कारिंदो ने ही यह सलाह दी कि राज्य में जो भी राज महल की गड़बड़ियों की आवाज उठाएगा उसे कानून का डंडा दिखाकर चुप करा दिया जाए। आवाज उठाने वाले कई लोगों की आवाज फिर कभी सुनाई नहीं दी। राज्य के लोग पर भय काम कर रहा था। अचानक एक दिन कुछ युवक राज्य में हो रहीं गड़बड़ियों की शिकायत लेकर अदालत में पहुंच गए। युवकों की टोली का नेतृत्व विजय प्रताप नामक व्यक्ति कर रहा था। विजय प्रताप सालों तक राज्य का सेनापति रहा था। राज सिंह के कारिंदों ने मौका लगते ही उसे महल से बाहर कर दिया। राज्य में यह अपवाह भी फैला दी कि विजय प्रताप,राज्य को हडपना चाहता है। भोली-भाली जनता ने इस पर चुप्पी साध ली।
विजय प्रताप भी राज्य छोड़कर चले गए। उन्हें महल में हो रहीं गडब़ड़ियों की खबर लगी तो वह अपने आपको रोक नहीं पाया। उसने जनता को बहुत समझाने की कोशिश की कि राजा, राज्य हित के बजाए अपने हित को ज्यादा देख रहा है। जनता फिर भी राजा के खिलाफ बगाबत करने का साहस नहीं दिखा सकी। विजय प्रताप ने न्याय के लिए अदालत जाने का फैसला किया। जज को पूरी कहानी सुनाई। जज ने पूरे ध्यान से विजय प्रताप की बात सुनी और रवाना कर दिया। दो दिन बाद ही अचानक जज ने नगर कोतवाल को आदेश दिया कि तत्काल विजय प्रताप के खिलाफ चार सौ बीसी और जालसाजी का अपराध दर्ज किया जाए। जज ने यह आदेश राज्य के उस कानून के तहत दिया जो आज लोकतांत्रिक देश में सीआरपीसी के नाम से जाना जाता है। सीआरपीसी की धारा 156(3) में यह प्रावधान है कि यदि किसी व्यक्ति के पास किसी अपराध की सूचना है और थाने में उसकी रपट दर्ज नहीं की जाती है और पुलिस के बड़े अफसर भी रिपोर्ट लिखवाने में असफल रहते हैं तो अदालत रपट लिखने का आदेश दे सकती है।
विजय प्रताप के खिलाफ राज्य आश्रित व्यक्ति ने ही अदालत में अर्जी देकर गुहार लगाई कि हजुर विजय प्रताप ने जो कहानी बताई है वो झूठी है। जज कानून से बंधे हुए होते हैं उन्होंने तत्काल दरोग को रपट लिखने का आदेश दे दिया। 156(3) के तहत दर्ज किए गए मामले में राहत मिलने की गंुजाइश किसी भी स्तर पर नहीं होती है। पुलिस भी मामले की जांच से इंकार नहीं कर सकती है। मध्य देश में ही इस धारा का उपयोग कर लोग पहले भी अपने विरोधियों को चुप कराते रहे हैं। विजय प्रताप ही नहीं कई दूसरे लोग पहले भी इस तरह की कार्यवाही के शिकार हो चुके थे। जिस अदालत का आदेश है, वही पुलिस की जांच रिपोर्ट देखकर अगली कार्यवाही का फैसला करता है। वैसे तो फरियादी को अदालत आने से पहले पुलिस थाने जाना चाहिए। दरोगा से ऊपर के अफसरों के ध्यान में भी लाना चाहिए कि फलां अपराध हुआ है। इसका संज्ञान लिया जाए। । अदालत आखिरी दरवाजा होता है। लेकिन, जज के पास 156(3) में आए आवेदन पर मामला दर्ज कराने का आदेश देने के अलावा कोई विकल्प नहीं होता। धारा 156 में पुलिस को जांच के अधिकार हैं। पुलिस की जांच पर किसी भी स्तर पर सवाल भी खड़े नहीं किए जा सकते हैं। कानून में यह ऐसे प्रावधान हैं,जिनके जरिए किसी भी व्यक्ति को कटधरे में खड़ा किया जा सकता हैं।
चाहे वह राजा ही क्यों न हो? यह कानून कई लोगों को महत्वपूर्ण पदों से हटवा चुका है। अंगे्रज चले गए हैं लेकिन, ऐसे कई कानून देश में छोड़ गए हैं जिनमें दूसरे पक्ष को सुने बगैर उसे अपराधी घोषित किया जा सकता है। मध्य देश के राजा, राज सिंह को इस कानून से सुविधा यह हो गई है कि अब वे जनता को एक बार फिर भरोसा दिला सकते हैं कि विजय प्रताप षडयंत्रकारी हैं। जनता के पास विजय प्रताप की सच्चाई सुनने का वक्त नहीं है। कानून ने अपना काम कर दिया। राजा भी खुश और कारिंदे भी खुश । जनता को पहले ही इससे कोई फर्क नहीं पड़ता था कि राजमहल में क्या हो रहा है? कहानी खत्म।
