डोंट माइंड प्लीज-1

सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस अरूण मिश्रा की यह टिप्पणी बेहद अहम है कि सुप्रीम कोर्ट में ताला लगा दिया जाना चाहिए,बेहतर है कि देश में रहा न जाए और देश छोड़ दिया जाए। जस्टिस मिश्रा ने यह टिप्पणी सिर्फ अखबारों में सुर्खियां बटोरने के लिए नहीं की होगी? सुप्रीम कोर्ट में बैठे न्यायमूर्ति जो देख रहे है,महसूस कर रहे हैं उसमें उनकी टिप्पणी को हल्के में नहीं लिया जाना चाहिए। टिप्पणी किसी सेलिबे्रटी या नेता की ओर से आई होती तो भगवा बिग्रेड सहित पूरी मशीनरी लाव-लश्कर लेकर उस टूट पड़ी होती। घर होता तो घर टूट जाता। दुकान टूट जाती। मनोबल तोड़ने के लिए हर हडकंडा अपनाया जाता। टिप्पणी सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस की है। इस कारण हर तरफ सन्नाटा है। दरअसल,हुक्मरानों ने तय कर लिया है कि काने को कान कहने की कोशिश करने वालों के मुंह पर ऐसा ताला लगाया जाए कि फिर कोई दूसरा बोलने की हिम्मत ही न करे। डेढ सौ साल की गुलामी से निकले भारत देश को एक बार फिर गुलाम बनाने की कोशिश तानाशाही तरीके से हो रही है। तानाशाह की सफलता के पीछे नौकरशाही की भूमिका काफी महत्वपूर्ण होती है। भारत के संविधान को गढ़ते समय इस बात का खास ख्याल रखा गया था कि लोकतंत्र के तीन महत्वपूर्ण अंगों में से कोई भी तानाशाह न हो पाए। कार्यपालिका,विधायिका और न्याय पालिका तीनों की संरचना ऐसी बनाई गई कि तानाशाही की गुंजाइश ही न रहे। कार्यपालिका और विधायिका का कोई गठजोड़ भी हो सकता है? शायद इस संभावना की कल्पना करने से संविधान सभा चूक गई। कार्यपालिका और विधायिका के इस गठजोड़ में न्याय पालिका खुद को शायद असहाय पा रही है? न्यायमूर्ति बाबुओं पर बरस रहे हैं। अदालत के आदेशों की अवहेलना करने वाले अफसरों पर कॉस्ट लगा रहे हैं। कहीं-कहीं तो न्यायमूर्ति न्याय करने के लिए अदालतों से बाहर भी निकल रहे हैं। अदालतों की तौहनी पर भडक रहे न्यायमूर्ति की आवाज भी नक्कार खाने में तूती की तरह है। देश में कानून का खुला मजाक निर्भया मामले में देखा गया है। कानून का राज देश में कहीं भी दिखाई नहीं देता। पूर्व-पश्चिम,उत्तर-दक्षिण कहीं भी नहीं। पूरी नौकरशाही राजनेताओं की ड्योडी पर बैठी है। वफादारी दिखाने की बेताबी उसकी आंखों में साफ देखी जा सकती है। नौकरशाही और सरकार बने नेताओं का गठजोड़ तीन सिद्धांत लेकर चल रहा है। साम,दाम,दंड। भेद के सिद्धांत को सियासी मोर्चे पर ही उपयोग किया जा रहा है। सांसद,विधायकों या महत्वपूर्ण नेताओं का दल बदल भेद के सिद्धांत का ही रूप है। केन्द्र में भारतीय जनता पार्टी की नीति का यह अलिखित सिद्धांत है। टेलीकॉम कंपनियों ने सुप्रीम कोर्ट के आदेश का पालन रूकवाने के लिए निश्चित तौर पर दाम का इस्तेमाल किया होगा? न्याय की कीमत भी लगाने की कोशिश की गई होगी? न्याय बिकता है,इस धारणा से मुक्त होने की न्यायपालिका की कोशिश पर लगातार कुछ लोग चोट पहुंचा रहे हैं। यह भी किसी से छुपा हुआ नहीं है। नीचली अदालतों में न्यायिक दंडाधिकारियों के ठीक सामने तारीखे बढ़ाने के लिए मुड़ा हुआ नोट लेते बाबुओं को याद कीजिए। अदालत और न्याय आसानी से समझ में आ जाएगा।

अदालतें नाराज होती हैं तो किसी का कुछ बिगडता नहीं है। अफसर पर कॉस्ट लगती है तो सरकारी खजाने से भुगतान हो जाता है। सजा भुगतने की स्थिति मौजूदा न्याय व्यवस्था में कम ही आती है। सजा वही भुगतता है जो तकदीर का मारा है। सिक्कों की खनक से तो भाग्य भी कई बार बदल जाता है। मौजूदा दौर में नौरशाही हो या सरकार में बैठे नेता दोनों ही आलोचना को सहन नहीं कर पा रहे हैं। मीडिया की स्वतंत्रता और विचार की अभिव्यक्ति का कोई मतलब ही नहीं है। हर राज्य में कोई न कोई ऐसा मामला सामने आता है,जो लोकतंत्र का अर्थ ही बदलकर रख देता है। नैतिकता लोकतंत्र के किसी भी स्तंभ में दिखाई नहीं देती है। विरोध के स्वर सख्ती से दबाए जा रहे हैं। हर दल की सरकारों में यह हो रहा है। अखबार अब समाज का आईना नहीं रहे। सच से ज्यादा झूठ दिखाई देता है। सच को जानने और स्वीकार करने के लिए नैतिक तौर मजबूत होना जरूरी है। जो नैतिकता से दूर चला गया है, वह माइंड भी करता है। देश और प्रदेश की घटनाओं पर हमारी यह श्रृंखला डोंट माइंड प्लीज सिर्फ इसलिए है कि आप अपने अंदन झांक कर सही फैसला ले सके।
