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परंपरागत राजनीति से बाहर आने की कोशिश में संघ और भाजपा

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दिनेश गुप्ता


भारतीय जनता पार्टी और उसका मातृ संगठन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ क्या अपनी परंपरागत हिंदुत्व की विचारधारा को छोड़कर धर्मनिरपेक्षता को स्वीकार कर रहा है? शायद अधिकांश लोग इस बात से सहमत नहीं होंगे कि संघ अपने हिन्दूवादी संगठन की छवि से बाहर आने की कभी कोशिश भी करेगा। संघ की पहचान सनातन धर्म से नहीं रही है। संघ ने देश के धर्म के मामले में हमेशा ही हिन्दू धर्म और हिन्दू राष्ट्र जैसे शब्दों को ही स्वीकार किया है। राजनीति में सनातन धर्म का उपयोग तो अक्सर कांगे्रसी नेता ही करते रहे हैं। लेकिन, पिछले कुछ समय से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और संघ प्रमुख मोहन भागवत का रवैया मुस्लिम अथवा अन्य धर्मों के लोगों के प्रति रवैया नरम होता दिखाई दे रहा है। कह सकते हैं कि संघ और भाजपा में संगठन की कट्टरवादी छवि से मुक्ति की छटपटाहट कहीं-कहीं देखने को मिल रही है। धर्मनिरपेक्षता शब्द संघ को स्वीकार्य नहीं रहा है। इसमें कांग्रेस का सॉफ्ट हिंदुत्व नजर आता है।
राष्ट्रीय सेवक संघ के अनुषांगिक कई संगठनों की भूमिका हिन्दुत्व की कट्टरवादी छवि को उभारने में ज्यादा रही है। राम मंदिर का मसला अकेला ऐसा मामला था,जिसे आगे कर संघ ने अपनी राजनीतिक जमीन को मजबूत किया है। इस बात में कोई संदेह नहीं है कि नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली केंद्र की सरकार ने संघ की विचारधारा के अनुसार ही हिंदुत्व के मुद्दों को साकार रूप देने की कोशिश की है। राम मंदिर के निर्माण की राह भले ही सुप्रीम कोर्ट के आदेश से निकली हो,लेकिन इस बात में भी दो राय नहीं है कि इसमें सरकार की भूमिका महत्वपूर्ण रही है। 2019 के लोकसभा चुनाव से पहले पाकिस्तान के खिलाफ सर्जिकल स्ट्राइक का कदम राजनीतिक तौर काफी फायदेमंद रहा है। संघ और भारतीय जनता पार्टी के भीतर सबसे ज्यादा चिंता 2024 से आगे की राजनीति को लेकर ज्यादा दिखाई दे रही है। भाजपा यह मानकर चल रही है कि 2024 के लोकसभा चुनाव में राम मंदिर के शिखर की पताका उसकी जीत का मार्ग प्रशस्त करेगी। राम मंदिर का लोकार्पण जीत की शत प्रतिशत गारंटी देने वाला नहीं है? भाजपा के भीतर यह भी एक सोच है। 1992 में बाबरी मस्जिद गिराए जाने का कोई बड़ा राजनीति लाभ चुनाव में भारतीय जनता पार्टी को नहीं मिल पाया तो इसकी वजह तत्कालीन नेतृत्व की राजनीतिक सोच रही। प्रधानमंत्री की कुर्सी के लिए भारतीय जनता पार्टी में लंबे समय तक एक ही नाम लोकप्रिय रहा। यह नाम अटल बिहारी वाजपेयी का था। वाजपेयी की तुलना में लालकृष्ण आडवाणी को वह स्वीकार्यता नहीं मिल पाई थी। लेकिन,नरेन्द्र मोदी को प्रधानमंत्री के रूप में आसानी से स्वीकार्यता मिली तो इसकी वजह विकास का गुजरात मॉडल रहा। लोगों के जेहन में डॉ मनमोहन सिंह के नेतृत्व वाली यूपीए सरकार की छवि ने भाजपा की राह आसान की थी। चुनाव के बाद देश में सबसे ज्यादा तेजी हिन्दुत्व के मॉडल में देखने को मिली थी। उत्तर प्रदेश में भाजपा को बहुमत मिलना भी इसी मॉडल का हिस्सा माना गया। उत्तर प्रदेश में विपक्षी नेता शायद परिस्थितियों का आकलन करने में चूक गए थे। लेकिन 2018 के विधानसभा चुनाव में मध्यप्रदेश,छत्तीसगढ़ और राजस्थान के वोटर ने इस मॉडल को स्वीकार नहीं किया था। माना यह गया कि इन तीनों राज्यों में भाजपा को सत्ता गंवाना पड़ी थी तो इसकी वजह सरकार का खराब प्रदर्शन रहा था। इसके बाद ही 2019 में लोकसभा के चुनाव हुए थे। प्रधानमंत्री के तौर पर नरेंद्र मोदी को मजबूती इन्हीं चुनाव परिणामों के बाद मिली। कश्मीर से अनुच्छेद 370 हटाए जाने का फैसला भी संघ की नीतियों के अनुसार ही लिया गया।
अब यदि संघ प्रमुख मोहन भागवत और प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी अल्पसंख्यक वोटर की चिंता कर रहे हैं तो इसके पीछे परंपरागत वोटर का मोह भंग होना भी वजह हो सकती है। पंडितों के बारे में श्री भागवत के बयान को भी इसी कड़ी का हिस्सा माना जाना चाहिए। पिछले लोकसभा चुनाव में भाजपा को 37 प्रतिशत से अधिक वोट मिले थे। दूसरे तरह से कहा जाए तो लगभग 63 प्रतिशत वोटर भाजपा के खिलाफ थे। आने वाले लोकसभा चुनाव में यह आंकड़ा बढ़ भी सकता है। इसका फायदा विपक्षी दल उठाने की कोशिश जरूर करेंगे। यद्यपि अब तक संयुक्त विपक्ष का कोई चेहरा सामने नहीं है। कांग्रेस अपना नेतृत्व छोड़ती दिखाई नहीं दे रही है। अल्पसंख्यक,अनुसूचित जाति और जनजाति वर्ग का वोटर कांग्रेस का परंपरागत वोटर माना जाता है। जाति व्यवस्था के बारे में संघ प्रमुख मोहन भागवत के बयान के पीछे कहीं न कहीं यह वोटर वजह हो सकता है। इस वोटर को यदि जोड़ना है तो राजनीति को हिंदुत्व से सनातन धर्म की और लाना मजबूरी है।
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